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(ह, हा, हाटी०) हारिभद्रीय दशवकालिक को टीका (मुद्रित)
शाह नगीन भाई घेला भाई जव्हेरी, ४२६ जव्हेरी बाजार द्वारा निर्णयसागर मुद्रणालय कोल भाट गली बम्बई-२३ में मुद्रापित प्रकाशित । विक्रम संवत् १९७४ । पत्र २८६ ।
उत्तराध्ययन : प्रति-परिचय (अ) मूलपाठ सावचूरी (हस्तलिखित)
यह प्रति हमारे 'संघीय-संग्रहालय' लाडनूं की है। इसके पत्र ६६ व पृष्ठ १६२ हैं । प्रत्येक पत्र १०३ इंच लम्बा व ४१ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ में पाठ की ६ पंक्तियों से लेकर १४ पंक्तियां तक हैं । प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३१ से ३४ तक अक्षर हैं। पाठ के चारों ओर अवचूरी लिखी हुई है। अवचरी से पाठ के अक्षर बड़े हैं । लिपि सुन्दर, शुद्ध एवं पढ़ने में स्पष्ट है। प्रति काली स्याही से व गाथाओं के संख्यांक व अध्ययनों की पूर्ति लाल स्याही से की गई है। यह विक्रम संवत् १५३८ में लिखी हई है । प्रति के अंत में लेखक की निम्नलिखित प्रशस्ति (पुष्पिका) है :
।।इति षटत्रिंशदुत्तराध्ययनानामवचूरि समाप्ता: ।। श्री रस्तु ।।
सं० १५३८ वर्षे विशाख सुदि १० रवि लिषितं ।। चिरं नंदंतु ॥१॥१ (आ) उत्तराध्ययन मूलपाठ (हस्तलिखित)
यह प्रति छापर निवासी मोहनलाल दुधोडिया के संग्रहालय की है। इसके पत्र ८९ व पृष्ठ १७८ हैं। प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा व ४१ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ में ११ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में अक्षर लगभग ३२ से ४० तक हैं । अक्षर बड़े तथा पढ़ने में स्पष्ट हैं। प्रति काली स्याही से व लेखक की प्रशस्ति लाल स्याही से लिखी हुई है। प्रशस्ति निम्न प्रकार है :
।संवत् १५६१ वर्षे श्री पत्तनपुरवरे श्री जिनवल्लभ सूरि संताने श्री खरतर गच्छेण नभोंगण दिनकर करणि सैद्धान्तिक सिरोमणि श्रीजिनभद्र सूरि श्री जिनचन्द्र सूरि तत्पट्ट प्रतिष्ठित श्री जिनभद्र सूरि पट्ट पूर्वाचल सहस्रकरावतार भाग्य सौभाग्य भंगी सुभग भालस्थल भट्टारक प्रभ श्री श्री श्री जिनहंस सूरि पट्टे श्री श्री श्री जिनमाणिक्य सूरिभिः सार्वभोग: वा० आणंद नंदन
गणाय प्रसादी कृतेयं प्रति । (इ) उत्तराध्ययन मूलपाठ (हस्तलिखित)
यह प्रति छापर निवासी मोहनलाल दुधोड़िया के संग्रहालय की है । इसके पत्र ३८ व पृष्ठ ७६ हैं । प्रत्येक पत्र १० इंच लम्बा व ४ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ में १७ पंक्तियां व प्रत्येक पंक्ति में अक्षर लगभग ५०-५१ हैं। अक्षर बड़े तथा पढ़ने में स्पष्ट हैं। प्रति काली स्याही से लिखी गई है। यह प्रति अनुमानत: १६ वीं शताब्दी में लिखी गई है। प्रति के अन्त में लेखक की निम्नलिखित प्रशस्ति है :
॥इति श्रीमदुत्तराध्ययनश्रुतस्कंधः समाप्तः ।। परमाप्त प्रणीत: ।। छ । नियुक्तिकार एतन्माहात्म्यमाह ॥ जे किर भवसिद्धीया। परित्त संसारिया य जे भव्वा । ते किर पढंति एए छत्तीस उत्तरज्झाए तम्हा जिण पन्नत्ते। अणंतगम पज्जवेहिं संजुत्ते । अब्भाए जह जोगं। गुरुप्पसाया
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