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१०1३६
१११८
११६५
१११८०
१२।१५
१२।२५
१२/२६
१३।१२
१३।४२
१३।४५
१३।६७
१४।१
१४|४
१४.६
१४ / ८
१४ ४०
पच्चोविलति
सपच्चवायंसि
बीभावेति
भूतिप्यमाणं
भायणेण
माणि
थेराणि
कक्कडगं
अरोगे
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ओसणं
कोह
किणेति
अच्छेज्जं
पडिग्गहं
अधारणिज्जं
उडुबद्धं
सचित्तं
१५.५
१६/३३
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१७/३
डियाए
१८/१७ ● पिहेति
૪૪
पच्चोइलति
सपच्चवादसि
बीहावे
हूतिष्यमाणं
हायणेण
पाणि
ठेराणि
कक्कडयं
अरोति
अरोगि
आरोगि
उसणं
कोव
किणति
आच्छेज्जं
अच्छिज्जं
पडिग्गहकं
अधारणियं
उउबद
सच्चित्तं
णिक्खिवेति
*वडियाए
पेहिति
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सहयोगानुभूति
जैन- परम्परा में, वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी थीं। देवद्धिगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए । उनकी पुनव्यवस्था के लिये आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी । आचार्यश्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिये प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण तटस्थदृष्टि समन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ ।
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हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्यश्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है । हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन - कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसन्धान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन
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