Book Title: Navgrah Arishta Nivarak Vidhan
Author(s): Balmukund Digambardas Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 44
________________ 42] नवग्रह अरिष्टनिवारक विधान दोहा श्रीमत सिद्ध अनन्त ते, होय गये गुणमाल। तनकी वर जयमालका, गाय हजारीलाल॥ (छन्द विजयानन्द सेठकी चालमें) जय जय जय अपगा अमृत पूर है। दोहू तट बिटपिन छाया भूरि है॥ षट ऋतुके शाखिन प्रसून सुहावने। पिक कीर सु शब्द करत मन भावने॥ तहां शंखो ऋषनि कुरम्ब विहार है। द्वादश विधि भावना भाव चित्तार है। वसुर्विंशति मूल गुणोंको सम्हारते। षट दुगने उग्र उग्र तप धारते // एकादश दुगुण परीषह जे सहै। तहां कम्पें मेरु अचल सम थिर हैं। केई मुनिको चौसठ ऋद्धि फुरी तहां। मति श्रुति सो अवधिज्ञान धारी जहां। कोऊ मुनिको, ज्ञान चतुर्थ पायके। दशमत्रय गुण स्थानको धायके॥ लह केवल गन्ध कुटी रचना भई। तहां इन्द्र आय प्रदक्षिणा त्रय किई। कोनी थुति गद्य पद्य त्रय योगते। . कर नृत्य सु तिष्ठे थान मनोगतं॥ जिन मुखतं दिव्य ध्वनि अनक्षरी। झेली गणधर द्वादश शाला विस्तरी॥

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