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दो शब्द
वर्तमान समय में साहित्य का प्रभूत रूप में प्रकाशन हो रहा है। जैन जगत में भी साहित्य सृजन और प्रकाशन के क्षेत्र में काफी कार्य हुए हैं। इस दिशा में जो भी रचनात्मक कार्य हुए हैं वे स्तुत्य हैं।
किसी भी प्रकाशन का महत्व उसमें प्रस्तुत विषय वस्तु की गुणवत्ता में निहित रहता है। आचार्य देव श्री शिवमुनि जी महाराज इस केन्द्रिय बिन्दु पर विशेष रूप में जागरूक हैं। उनका चिन्तन है कि जो भी साहित्य प्रकाश में आए वह प्रामाणिक हो और आत्मसाधना में सहयोगी हो। आचार्य देव के उसी चिन्तन को हम उनके साहित्य में साकार होता पाते हैं।
तीन वर्ष पूर्व आचार्य श्री ने श्रीसंघ के समक्ष विचार रखा कि आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी म. द्वारा व्याख्यायित जैनागम जैन जगत की अमूल्य धरोहर हैं और उन आगमों में आत्मसाध ना के असंख्य सूत्र बिखरे हैं, अतः उन आगमों को मुद्रित - पुनर्मुद्रित कराके प्रत्येक मुमुक्ष के लिए स्वाध्याय और साधना का द्वार प्रशस्त किया जाएं। श्रीसंघ ने आचार्य श्री के विचार को सिरआंखों पर धारण किया और आगमं प्रकाशन के भागीरथ अभियान का प्रारंभ हुआ। आगम प्रकाशन के सम्बन्ध में आचार्य देव का विचार निर्देश और श्री संघ के अदम्य उत्साह का ही यह प्रमाण है कि तीन वर्ष की अल्पावधि में ही आचार्य सम्राट् श्री आत्माराम जी म. के व्याख्याकृत आगमों के दस संस्करण सर्व सुलभ बन चुके हैं। इस दिशा में कार्य निरंतर जारी है और शेष आगम भी शीघ्र सर्व सुलभ होंगे ऐसा विश्वास है ।
आगम प्रकाशन के इस कार्यक्रम पर सर्वत्र उत्साह देखा जा रहा है । सहयोगियों की संख्या निरन्तर वर्धमान होती जा रही है। यह अत्यन्त शुभ है और हार्दिक प्रसन्नता का विषय है कि जैन जगत में अपनी मौलिक धरोहर के प्रति प्रगाढ़ आस्था है और स्वाध्याय रूचि की उत्कटता
है।
असंख्य सहयोगी हाथ इस श्रुत साधना अभियान से जुड़ चुके हैं। मैं स्वयं को परम पुण्यशाली अनुभव करता हूं कि उन असंख्य सहयोगी हाथों में एक हाथ मेरा भी है।
श्रुत-साधना और श्रुत-प्रभावना के इस अभियान पर हम सतत अविश्रान्त यात्रायित हैं और यात्रायित रहेंगे ऐसा हमारा विनम्र संकल्प है।
- शिरीष मुनि
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