Book Title: Nandanvana Author(s): N L Jain Publisher: Parshwanath VidyapithPage 14
________________ आमुख आप्टे के अनुसार; 'वन' शब्द से अनेक अर्थों का बोध होता है। वृक्ष-युक्त जंगल, पुष्प-गुच्छ, निवास स्थान, जल-फुहार आदि। ये अर्थ इसकी उपयोगिताओं पर प्रकाश डालते हैं। इस शब्द से अनेक प्रकार के धान्य, फल-फूल, पशु-पक्षी, और देवी-देवता भी सहचरित होते हैं। इससे इनकी विविधा का और भी आभास होता है। प्राचीन काल में ग्राम और नगर वन-आच्छादित होते थे और उनकी मनोरमता बढाते थे। उपवन, उद्यान, वाटिका, वगीचा आदि वनों के लघुरूप ही तो हैं या कहा जाये तो ग्राम-नगर वनों में ही बसते थे। ये वन मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं : (1) प्राकृतिक (2) मानव-निर्मित। प्राकृतिक वनों की सुषमा और विविधता निराली होती है। ये अध्यात्म पथ के पथिकों के लिये आदर्श स्थान होते हैं। मानव-निर्मित वन उपवन के समान होते हैं। ये वर्षाकारी, वर्षाधारी एवं वातावरण को संतुलित बनाये रखते हैं। जैन परम्परा के त्रिस्तरीय प्राकृतिक विश्व के मध्यभाग में विद्यमान विशाल मध्य लोक के मध्य में एक उत्तुंगकाय सुमेरु पर्वत है। इसकी विभिन्न ऊंचाइयों पर चार वन हैं : (1) भद्रशाल : पवित्र वन (2) नंदन वन : (1) से 500 Y ऊंचाई पर, इन्द्रवन, स्वर्ग (3) सौमनस : (2) से 61,500 Y ऊपर, (4) से 36000 Y नीचे, हितकारी वन, कमलयुक्त वन (4) पांडुक वन : सुमेरु शिखर पर, पीत-शुक्ल वन। _इनके नाम से ही इनके मनोरम रूप और सौंदर्य का आभास होता है। शास्त्रीय विवरणों के अनुसार, इनमें लघुवन या उपवन होते हैं, नागकेशर के समान अनेक सुगंधित वृक्ष, मोर और कोयल के समान पक्षी, चारो दिशाओं में चार प्रासाद, चारो दिशाओं में चार जिनमंदिर, तोरण-द्वार, जल-वापियां, वेदिकायें एवं शिखर होते हैं। इन सभी के कारण इन वनों में मनोहारिता, एवं प्रसाद-गुणकता आती है। योगी और ध्यानी इसीलिये वनवासी हो जाते हैं। शान्त वातावरण शारीरिक एवं मानसिक संतुलन बनाये रखने तथा आन्तरिक ऊर्जा के संवर्धन में सहायक होता है। भूतकाल में वनवासी राम, महावीर, बुद्ध आदि के समान योगियों ने ही भगवान की संज्ञा पाई है। - प्राकृतिक वनों के समान साहित्य-प्रेमियों एवं साहित्य-स्रष्टाओं के भी व्यक्तिगत या सामुदायिक वन होते हैं। इन्हें पुस्तकागार, पुस्तक मंदिर या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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