Book Title: Nag Kumar Charita
Author(s): Pushpadant Mahakavi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ 20 णायकुमारचरिउ द्वारा जैनधर्मके इन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है कि प्रत्येक जीवके अच्छे-बुरे कर्मोका अनुरूप फल उसे इसी जन्ममें ही नहीं किन्तु भावी जन्म-जन्मान्तरोंमें भी भोगना पड़ता है। अपने पुण्य-पापरूप भावों और परिणामोंके अनुसार उसे मनुष्यसे पशु और पशुसे मनुष्ययोनियोंमें भ्रमण करना पड़ता है और यहाँ भी उसके पूर्वकृत शत्रु-मित्र सम्बन्धोंकी परम्परा चलतो रहती है। कथानकका विशेष अभिप्राय है कि जीवहिंसा सबसे अधिक घोर पाप है और जो कोई अपने परलोकको सुधारना चाहते हैं उन्हें जीवहिंसाको क्रिया ही नहीं किन्तु भावनासे भी अपने मनको बचाना चाहिए। कथाके इसी उद्देश्य के कारण प्राचीनकालमें वह बहुत लोकप्रिय हुई और अनेक कवियोंने उसपर काव्य-रचना को / पुष्पदन्त को तृतीय रचना प्रस्तुत णायकुमारचरिउ है जिसके विषयका सारांश अंगरेजी प्रस्तावनाके अतिरिक्त प्रत्येक कडवक क्रमसे बनाये गये विषय-विवरणसे जाना जा सकता है। 4. णायकुमारको विषयात्मक पूर्वपरम्परा इस चरितके नायक नागकुमार हैं जो एक राजपुत्र हैं, किन्तु सौतेले भ्राता श्रीधरके विद्वेषवश वे अपने पिता द्वारा निर्वासित नानाप्रदेशोंमें भ्रमण करते हैं तथा अपने शौर्य, नैपुण्य व कला-चातुर्यादि द्वारा अनेक राजाओं व राजपुरुषोंको प्रभावित करते हैं, बड़े-बड़े योधाओंको अपनी सेवामें लेते हैं तथा अनेक राजकन्याओंसे विवाह करते हैं / अन्ततः पिता द्वारा आमन्त्रित किये जानेपर वे पुनः राजधानीको लौटते हैं और राज्याभिषिक्त होते हैं / फिर जीवनके अन्तिम चरणमें संसारसे विरक्त होकर मुनि-दीक्षा लेते और मोक्ष प्राप्त करते हैं। - यदि हम विचार करके देखें तो चरित्रका यह ढाँचा स्पष्टतः वही है जो हम वाल्मीकिकृत रामायण में पाते हैं। वहाँ भी चरित-नायक राजकुमारावस्थामें हो अपने विमात-भ्राता भरत और उनके बीच राज्याभिषेक सम्बन्धी विवाद के निमित्तसे प्रवासित होकर नानाप्रदेशोंमें भ्रमण करते हैं, नोतिका पक्ष लेकर सबल शत्रुओंके विरुद्ध निर्बलोंकी सहायता करते हैं और अन्त में स्वयं अपने प्रति घोर अन्यायी महाबलशाली लंकानरेशको पराजितकर अपनो राजवानोको लोटते, राज्याभिषिक्त होते और अन्तमें परमधाम व आत्मस्वरूपको प्राप्त करते हैं। रामायणके इस ढांचेने परकालवर्ती समस्त संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश कथा-साहित्यको प्रभावित किया है। महाभारतमें पाण्डवोंके प्रवास आदिका भी यही ढाँचा है। कथासरित्सागरके साक्ष्य के अनुसार उसका मूलगन्य गुणाढ्यकृत बृहत्कथाका भी यही ढाँचा पाया जाता है / वसुदेव हिण्डीको को भी यही रूपरेखा है तथा समस्त चरित-रचनाएँ प्रायः इसी साँचेमें ढालो गयो पायी जाती है। इसमें चरितनायकको उसके संकुचित परिवेशसे निकालकर और उसकी नाना कठिन परिस्थितियों में परीक्षा कराकर उसके असाधारण गुणोंको प्रकट करनेका अच्छा अवसर प्राप्त होता है। यहाँ नायकके अपने निवासस्थानसे निर्वासित किये जानेके हेतुओं, उसके सम्मुख आनेवाली नाना कठिनाइयों, उनसे निपटने के नैपुण्यको कल्पनामें तथा इन सबके वर्णनमें सरसता और सौन्दर्य लानेके कौशलमें कविको अपनी मोलिकता दिखानेका अच्छा अवसर प्राप्त होता है / इसो बोच नगरों, पर्वतों, वनों एवं पुरुष-नारियोंके वर्णनकी चतुराई तथा युद्ध व प्रेमके प्रसंगोंपर पुरुष व नारियोंके भाव-वैचित्र्यका चित्रण करनेका कविको पर्याप्त अवकाश मिलता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इस प्रकारको सभी परिस्थितियां उत्पन्न हई पायो जाती हैं और उन सभी स्थलोंपर कविका कल्पनात्मक व भावात्मक चातुर्य पर्याप्त मात्रामें प्रकट हुआ पाया जाता है। इन सब प्रसंगोंपर रचनामें वे सभी गुण आ जाते हैं जिनका दण्डोने महाकाव्यमें होना आवश्यक बतलाया है। प्रसंगोंको कल्पना करनेमें पुष्पदन्तने पौराणिक सामग्रीका उपयोग तो किया ही है, साथ ही यह भी आभास मिलता है कि उन्होंने अपनी ऐतिहासिक स्मृतियोंका भो समावेश किया हो तो आश्चर्य नहीं। इस सम्बन्ध में एक प्रसंग हमें विशेषरूपसे आकृष्ट करता है। पांचवी सन्धिके अन्तिम भागमें वर्णित है कि काशमोरमें रहते हुए नागकुमारने रम्यकवनके सम्बन्धमें कुछ आश्चर्यजनक बातें सुनी और वह उन्हें देखने के लिए-वहाँसे चलकर एक वनमें पहुंचा जहां उसने एक असुरको अपने वशमें करके उसके द्वारा अपहृत शवरी PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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