Book Title: Nag Kumar Charita
Author(s): Pushpadant Mahakavi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ प्रस्तावना 1. कवि-परिचय और उनके आश्रयदाता इस काव्यके कर्ता महाकवि पुष्पदन्त हैं / उन्होंने अपनी तीनों रचनाओं अर्थात् महापुराण, जसहरचरिउ तथा णायकुमारचरिउको उत्थानिकाओं, अन्तिम प्रशस्तियों, सन्धि-शीर्षक पद्यों एवं सन्ध्यन्त पुष्पिकाओंमें महामन्त्री भरत और उनके पुत्र व उत्तराधिकारी नन्नका बहुत कुछ परिचय दिया है / प्रस्तुत ग्रन्थके आदिमें उन्होंने कहा है कि उनके समयमें मान्यखेट नगरीके राजा कृष्णराज थे, जिनकी बल्लभराय उपाधि थी। उनके महामन्त्री थे नन्न, जो कौडिण्यगोत्रीय थे। उनके पिताका नाम भरत और माताका कुन्दन्वा था / कविने प्रथम सन्धिके दो कडवकों ( तीन और चार ) में उनके गुणोंकी बहुत प्रशंसा की है और कहा है कि उन्होंने प्रस्तुत काव्यकी रचना उन्हींके आग्रहसे की। उनके महोदधि, गुणधर्म, शोभन, नाइल्ल तथा शीलैय्या नामक शिष्योंने भी उनसे काव्यरचनाको प्रार्थना की और यह भी विनय की कि वे अपनी रचनाको नन्नके नामसे अंकित करें। तदनुसार कविने प्रत्येक सन्धिको पुष्पिकामें अपने णायकुमारचरिउको 'नन्न-नामांकित' कहा है / ग्रन्थके अन्तमें जो एक कडवक तथा छह गाथाएं पायी जाती हैं, वे कविको प्रशस्ति कही जा सकतो हैं। वहाँ कविने अपने काव्यको परम्परा गौतमगणवरसे बतलाकर तथा उसके पढ़ने-पढ़ानेवालों एवं अपने आश्रयदाता ननकी मंगलकामना करते हुए अपने सम्बन्धमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह कही है कि उनके माता-पिता मुग्धादेवी और केशवभट्ट काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। वे पहले शैव धर्मावलम्बी थे, किन्तु अपने जीवनके अन्तिम चरणमें उन्होंने एक जैनमुनिका उपदेश पाकर जैनधर्म धारण कर लिया था और वे जैन संन्यासविधिसे मरणको प्राप्त हुए। इस प्रकार कविको जैनधर्मको शिक्षादोक्षा अपने माता-पितासे ही प्राप्त हुई होगी। गाथाओंमें उन्होंने अपने आश्रयदाता महामन्त्री ननके कौडिन्यगोत्र, माता-पिता कुन्दन्वा और भरतभट्ट तथा उनके शुभतुंग नामक राजप्रासादके समस्त कामकाजका भार धारण करने का उल्लेख किया है तथा यह भी कहा है कि वे जैनधर्मके बड़े भक्त थे। उन्होंने अनेक जैनमन्दिर बनवाये थे और स्वयं जिनदेवकी पूजा-अर्चामें, जैनशासनके उद्घारमें, तथा मुनियोंको दान देने में सदैव तत्पर रहते थे / स्वभावसे वे बड़े दयावान्, दानी, विद्याव्यसनी और शुद्ध-हृदय थे। उनको ही प्रार्थनासे प्रेरित होकर पुष्पदन्तने सहर्ष इस ग्रन्थको रचना की थी। यहां तथा आदिके दूसरे कडवकके घत्तामें उन्होंने अपनेको 'कव्वपिसल्ल' अर्थात् काव्यपिशाच कहा है। उनके शिष्योंने उनसे प्रार्थना करते हुए उन्हें वागेश्वरीदेवी-निकेत भी कहा है तथा उपाध्याय कहकर उनका सम्बोधन किया है। इससे प्रतीत होता है कि कविने अपने ज्ञान, अध्यापन तथा काव्य-रचनामें इससे पूर्व भी पर्याप्त यश और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। यह इस बातसे भी प्रमाणित होता है कि वे अब तक अपने विशालकाय महापुराणकी रचना कर चुके थे, क्योंकि उसे उन्होंने उसकी सन्धि-पुष्पिकाओंमें नन्नके पिता महाभव्य भरत द्वारा अनुमोदित कहा है। वे भरतसे कैसे मिले, इसका उन्होंने महापुराणके आदिमें बड़ा मार्मिक वर्णन किया है। आदिके तृतीय कडवकमें उन्होंने कहा है कि जब मान्यखेटमें राजाधिराज 'तुडिगु' अर्थात् तैलुंगु ( तैलंगदेशके नरेश ) जिन्होंने चोड देशके राजाको युद्धमें मृत्युको प्राप्त कराया था, राज्य कर रहे थे, तब ये कवि पृथ्वीपर विचरण करते हुए दुर्गम और दीर्घ मार्गकी यात्रासे नये चन्द्रमाके समान क्षीण और दुर्बल होकर इस नगरके बाह्य उद्यानमें आकर विश्राम करने लगे। उस समय अम्मइया और इंट्रैया नामके दो पुरुष उनके समीप आये और उन्होंने प्रणामकर उनसे कहा कि आप इस निर्जन वनमें क्यों पड़े हैं, विशाल नगरीमें क्यों नहीं चलते ? इसपर P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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