________________ प्राथमिक णायकुमारचरिउ मेरे सम्मुख प्रथम बार तब आया जब मैंने ईसवी सन् 1924 के ग्रीष्मावकाशमें कारंजा ( जिला अकोला, विदर्भ ) के जैन शास्त्र भण्डारोंका अवलोकन किया। वहाँ संस्कृतके सहस्रों ग्रन्थोंकी हस्तलिखित प्रतियों के अतिरिक्त कोई 10-12 ग्रन्थ अपभ्रंश भाषाके भी देखने में आये। इनमें पुष्पदन्त कविको तीन रचनाएँ प्रधान थीं, और उन्होंने मुझे विशेष रूपसे आकर्षित किया। मैंने तत्काल ही इस कविके काल-निर्णयपर एक निबन्ध लिखा, जो "जैन साहित्य संशोधक" नामक त्रैमासिक पत्रिकामें प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष "इलाहाबाद यूनि. स्टडीज़" के प्रथम अंकमें ( 1925 ) मेरा "अपभ्रंश लिटरेचर" शीर्षक लेख भी प्रकाशित हुआ, जिसमें पुष्पदन्तकी सभी रचनाओं के अतिरिक्त उस समय तक ज्ञात समस्त अपभ्रंश रचनाओंका भी संक्षिप्त परिचय दिया गया था / सन् 1926 ई. में मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रकाशित संस्कृत, प्राकृत हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची में कारंजा भण्डारोंके समस्त ग्रन्थोंकी सूची भी सम्मिलित की गयी तथा उसकी प्रस्तावनामें उक्त अपभ्रंश ग्रन्योंका परिचय, और परिशिष्ट में उनके अनेक अवतरण भी दिये गये / इनसे विद्वानोंकी रुचि इस साहित्यको ओर विशेष रूपसे जागृत हुई और मुझे यह प्रेरणा मिलने लगो कि इन ग्रन्थोंके सम्पादन-प्रकाशनको व्यवस्था की जाये। मैं सन् 1925 में अमरावतीके शासकीय महाविद्यालयमें संस्कृतका प्राध्यापक होकर पहुँच गया था। वहांसे कारंजाके भण्डार अपेक्षाकृत मेरे समीप थे / अतएव इस साहित्यको प्रकाशमें लानेको तीव्र इच्छा हुई। इसको शीघ्र ही सुविधा भी मिल गयी जिसके फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्य प्रथम बार 1933 में प्रकाशित हुआ। इस प्रकाशनका विशेष विवरण उसके प्रथम संस्करणके प्रिफेसमें दिया गया है, जो इस द्वितीय संस्करणमें भी अविकल रूपसे प्रकाशित किया जा रहा है। इस बीच अपभ्रंश ग्रन्थोंकी ओर विद्वानोंका विशेष रूपसे ध्यान गया है व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमोंमें भी उन्हें स्थान मिला है / इस प्रचारसे "णायकुमारचरिउ"को प्रतियाँ अनेक वर्ष पूर्व समाप्त हो गयी थीं। किन्तु इनकी मांग बरावर बनी रही जिसे देखते हुए मेरे प्रिय सुहृद् डॉ. आ. ने. उपाध्येका आग्रह हुआ कि मैं इसका द्वितीय संस्करण तैयार कर हूँ और उसमें आधुनिक आवश्यकतानुसार अविकल हिन्दी अनुवाद भी जोड़ दूं / तदनुसार यह द्वितीय संस्करण तैयार किया गया है। . इस संस्करणको विशेषताएँ ये हैं कि काव्यके पूरे पाठपर पुनः विचार किया गया है और यद्यपि पाठ संशोधन के लिए कोई नयो प्रतियों का उपयोग नहीं किया गया किन्तु जो पाठान्तर प्रयम संस्करणमें दिये गये थे उनमें से कुछ पाठोंको ऊपर-नीचे करना उपयुक्त समझा गया। नयी पद्धतिके अनुसार ह्रस्व ए, ओ को मात्राओं के विशेष चिह्नोंको अपनाया गया एवं अनुस्वारसे पृथक् सूचित करनेके लिए अनुनासिकके लिए अर्द्धचन्द्रविन्दीका उपयोग किया गया है। हिन्दी अनुवादको यथाशक्ति ऐसा रखा गया है कि जिससे मूलपाठके प्रत्येक शब्दके अर्थ एवं उसके व्याकरणरूपकी सरलतासे जानकारी हो सके। इस प्रयत्नके साथ कहींकहीं आधुनिक हिन्दीके मुहावरेका निर्वाह करना कठिन हुआ है, तथापि अपने उद्देश्यको देखते हुए प्रधानता मूलपाठके स्पष्टीकरणको ही दी गयी है। प्रथम संस्करणको अंगरेज़ी प्रस्तावना, शब्दकोश और नोट्स में शाब्दिक अशुद्धियोंको दूर करनेके अतिरिक्त अन्य कोई हेर-फेरकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। प्रथम PP.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust