Book Title: Manavta Muskaye
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 249
________________ ० भरतक्षेत्र में वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ व अन्तिम तीर्थकर महावीर थे। (सम्यक् ) दर्शन-यथार्थ तत्त्वदृष्टि को (सम्यक्) दर्शन कहते हैं। उसके चार प्रकार हैं-चक्षु दर्शन २. अचक्षु दर्शन ३. अवधि दर्शन ४. केवल दर्शन। दर्शनमोहनीय (कर्म)-मोहनीयकर्म की वह अवस्था, जो आत्मा के श्रद्धा (सम्यक् दर्शन) को विकृत करती है। ध्यान-एकाग्र चितन और योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) के निरोध को ध्यान कहते हैं। उसके चार प्रकार हैं---१. आर्त २. रौद्र ३. धर्म्य ४. शुक्ल। निर्जरा ० तपस्या के द्वारा कर्ममल का विच्छेद होने पर आत्मा की जो उज्ज्वलता होती है, उसे निर्जरा कहते हैं। ० कारण को कार्य मानकर तपस्या को भी निर्जरा कहा गया है। उसके अनशन, ऊनोदरी आदि बारह भेद हैं। __ सकाम और अकाम के रूप में वह दो प्रकार की भी होती है। ये दोनों प्रकार की निर्जरा सम्यक्त्वी एवं मिथ्यात्वी दोनों के होती है। देखें-सकाम निर्जरा, अकाम निर्जरा।। परीषह-साधु-चर्या को पालने के कारण उत्पन्न होने वाले कष्ट । वे बावीस प्रकार के होते हैं-१. क्षुधा २. पिपासा ३. शीत ४. उष्णता ५. मच्छर-दंश ६. अचेल ७. अरति-रति ८. स्त्री ९. चर्या १ . निषीधिका ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण-स्पर्श १८. मैल १९. सत्कार २०. प्रज्ञा २१. ज्ञान २२. दर्शन । इनमें स्त्री और सत्कार-ये दोनों अनुकूल परीषह हैं। शेष बीस परीषह प्रतिकूल परीषह हैं। पाप-प्राणी के अशुभ रूप में उदय आनेवाले कर्म पाप हैं। अशुभ कर्मों के बंधन का कारण असत् प्रवृत्ति है। उपचार से असत् प्रवत्ति को भी पाप कहा गया है। प्राणातिपात, मृषावाद आदि उसके अठारह प्रकार पाप रूप में उदय में आने से पूर्व बंध अवस्था में रहे अशुभ कर्मों को द्रव्य पाप तथा अशुभ रूप में उदय में आने पर उन्हें भाव पाप । कहते हैं। पुण्य-प्राणी के शुभ रूप में उदय आनेवाले कर्म पुण्य हैं । शुभ कर्मों के बंधन का हेतु सत्प्रवृत्ति है। सत्प्रवृत्ति से निर्जरा के साथ आनुषंगिक पारिभाषिक शब्द-काष २३.१ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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