Book Title: Manavta Muskaye
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 251
________________ जो प्राणी मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, यानी जिसकी श्रद्धा/समझ असम्यक् विपरीत है, वह मिथ्यात्वी है। मिथ्यादृष्टि-देखें मिथ्यात्वी। मोक्ष-चेतना का वह चरम विकास-स्तर, जहां पूर्व समस्त कर्मों का बंधन क्षीण हो जाता है और नये बंधन की प्रक्रिया बिलकुल बन्द हो जाती है। मोहकर्म, मोहनीय कर्म-प्राणी के दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (आचार) को विकृत करनेवाले कर्म को मोहकर्म या मोहनीय कर्म कहते हैं। ___ मोहनीय कर्म की मुख्य दो प्रकृतियां हैं --दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियां हैं-१. सम्यक्त्वमोहनीय २. मिथ्यात्वमोहनीय ३. मिश्रमोहनीय । चारित्रमोहनीय की पचीस प्रकृतियां हैं.---१. अनंतानुबन्धी क्रोध २. अनंतानुबंधी मान ३. अनंतानुबंधी माया ४. अनंतानुबंधी लोभ ५. अप्रत्याख्यान क्रोध ६. अप्रत्याख्यान मान ७. अप्रत्याख्यान माया ८. अप्रत्याख्यान लोभ ९. प्रत्याख्यान क्रोध १०. प्रत्याख्यान मान ११. प्रत्याख्यान माया १२. प्रत्याख्यान लोभ १३. संज्वलन क्रोध १४. संज्वलन मान १५. संज्वलन माया १६. संज्वलन लोभ १७. हास्य १८. रति १९. अरति २०. भय २१. शोक २२. जुगुप्सा २३. स्त्रीवेद २४. पुरुषवेद २५. नपुंसकवेद । रस-परित्याग-विकृतियों के त्याग को रस-परित्याग कहते हैं। दूध, दही, घी आदि को विकृति कहा जाता है । लोक-अनत आकाश के षड्द्रव्यात्मक भाग को लोक कहते हैं। उसके तीन भाग हैं-ऊंचा लोक, नीचा लोक और तिरछा लोक । तिरछा लोक को मध्य लोक भी कहते हैं । विनय-आशातना (असद् व्यवहार) न करना तथा बहुमान करना विनय है। ज्ञानविनय, दर्शनविनय आदि उसके सात प्रकार हैं। विनय से ज्ञान, दर्शन व चारित्र की विशेष निर्मलता होती है तथा मन, वचन और काया की पवित्रता सधती है। वीतराग-राग-द्वेष से मुक्त आत्मा को वीतराग कहते हैं । वीतराग ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है । बयावृत्य-दूसरों को सहयोग करने की भावना से सेवा-कार्य में जुटना वैयावृत्य है : आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि उसके दस स्थान पारिभाषिक शब्द-कोष २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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