Book Title: Manavta Muskaye
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 250
________________ रूप में शुभ कर्मों का बंधन होता है । उपचार से सत् प्रवृत्ति को भी पुण्य कहा गया है । अन्न, पान आदि उसके नौ प्रकार बताए गए हैं। पुद्गल-जो द्रव्य स्पर्श, रस, गंध और वर्ण युक्त होता है, वह पुद्गल है । लोक के सभी मूर्त दृश्य पदार्थ पुद्गल ही है। सामान्य भाषा में उसे भौतिक तत्त्व या जड़ पदार्थ कहा जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से सभी प्रकार की भौतिक ऊर्जा एवं भौतिक पदार्थों का समावेश पुदगल में होता है। प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय, मन आदि की बहिर्मुखी प्रवृत्ति का प्रतिसंहण करना _अथवा उसे अन्तर्मुखी करना प्रतिसंलीनता है। बंध-आत्मा द्वारा कर्मपुद्गलों का संग्रहण और परस्पर दूध और घी की तरह एकीभूत संबंध बंध है। बंध के चार प्रकार हैं--१. प्रकृति .. २. स्थिति ३. अनुभाग ४. प्रदेश ।। भिक्षाचरी-विविध प्रकार के अभिग्रहों (प्रतिज्ञाओं) से वृत्ति-खान-पान का संक्षेप करना भिक्षाचरी है । इसे वृत्तिसंक्षेप भी कहते हैं । मनःपर्यवज्ञानी-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा मनोद्रव्य की विभिन्न पर्यायों का जो साक्षात् ज्ञान किया जाता है. उसे मन:पर्यवज्ञान कहते हैं। इसके द्वारा समनस्क (मनसम्पन्न) जीव की विभिन्न मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान होता है। इस ज्ञान को . मात्र संयमी (साधु) को ही हो सकता है। इस ज्ञान से संपन्न व्यक्ति को मन:पर्यवज्ञानी कहा जाता है। महा आरंभ--तीव लालसा के कारण अमर्यादित रूप में क्रूरतापूर्ण हिंसा में प्रवृत्त होना। महा परिग्रह-तीव्र लालसा के कारण अमर्यादित रूप में अशुद्ध साधनों से संग्रह में प्रवृत्त होना। महावत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह---इन पांचों व्रतों का पूर्ण/अखंडित रूप । ___ मन, वचन और काया से कृत, कारित और अनुमोदन-वर्जन के साथ अहिसा आदि का पालन करना पूर्ण अखंडित का सीमा-क्षेत्र है। मिथ्यात्वी-जो तत्त्व जिस रूप में है, उसे उससे विपरीत रूप में समझना मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों (मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय) एवं चारित्रमोहनीय की चार प्रकृतियों (अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ) के उदय से निष्पन्न होता है। दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय मोहनीय कर्म के ही दो भेद हैं। देखें-मोहनीय कर्म, दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय । २३२ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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