Book Title: Manav Dharma Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Mahavideh Foundation View full book textPage 7
________________ मानव धर्म मानव धर्म मानव धर्म यानी, हमें जो पसंद है वह लोगों को देना और हमें जो पसंद नहीं हो वह दूसरों को नहीं देना। हमें कोई धौल मारे वह हमें पसंद नहीं है तो हमें दूसरों को धौल नहीं मारनी चाहिए। हमें कोई गाली दे वह हमें अच्छा नहीं लगता, तो फिर हमें किसी और को गाली नहीं देनी चाहिए। मानव धर्म यानी, हमें जो नहीं रुचता वह दूसरों के साथ नहीं करना। हमें जो अच्छा लगे वही दूसरों के साथ करना. उसका नाम मानव धर्म। ऐसा ख्याल रहता है या नहीं? किसी को परेशान करते हो? नहीं, तब तो अच्छा है। 'मेरी वजह से किसी को परेशानी न हो', ऐसा रहे तो काम ही बन गया! रास्ते में रुपये मिले तब..... किसी के पंद्रह हजार रुपये, सौ-सौ रुपयों के नोटों का एक बंडल हमें रास्ते में मिले, तब हमारे मन में यह विचार आना चाहिए कि 'यदि मेरे इतने रुपये खो जाएँ तो मुझे कितना दु:ख होगा, तो फिर जिसके यह रुपये हैं उसे कितना दु:ख होता होगा?' इसलिए हमें अख़बार में विज्ञापन देना चाहिए, कि इस विज्ञापन का खर्च देकर, सबूत देकर आपका बंडल ले जाइए। बस, इस तरह मानवता समझनी है। क्योंकि जैसे हमें दुःख होता है वैसे सामनेवाले को भी दुःख होता होगा ऐसा तो हम समझ सकते हैं न? प्रत्येक बात में इसी प्रकार आपको ऐसे विचार आने चाहिए। किन्तु आजकल तो यह मानवता विस्मृत हो गई है, गुम हो गई है! इसीके ये दुःख हैं सारे! लोग तो सिर्फ अपने स्वार्थ में ही पड़े हैं। वह मानवता नहीं कहलाती। अभी तो लोग ऐसा समझते हैं कि 'जो मिला सो मुफ्त में ही है न!' अरे भाई! फिर तो यदि तेरा कुछ खो गया, तो वह भी दूसरे के लिए मुफ्त में ही है न! प्रश्नकर्ता : किन्तु मुझे ये जो पैसे मिलें, तो दूसरा कुछ नहीं, मेरे पास नहीं रखने लेकिन गरीबों में बाँट दूं तो? दादाश्री : नहीं, गरीबों में नहीं, वे पैसे उसके मालिक तक कैसे पहुँचे उसे ढूँढकर और ख़बर देकर उसे पहुँचा देना। यदि फिर भी उस आदमी का पता नहीं चले, वह परदेशी हो, तो फिर हमें उन पैसों का उपयोग किसी भी अच्छे कार्य के लिए करना चाहिए, किन्तु खुद के पास नहीं रखने चाहिए। और यदि आपने किसी के लौटाए होंगे तो आपको भी लौटानेवाले मिल आएँगे। आप ही नहीं लौटाएँगे तो आपका कैसे वापिस मिलेगा? अत: हमें खुद की समझ बदलनी चाहिए। ऐसा तो नहीं चले न! यह मार्ग ही नहीं कहलाता न! इतने सारे रुपये कमाते हो फिर भी सुखी नहीं हो, यह कैसा? यदि आप अभी किसी से दो हज़ार रुपये लाए और फिर लौटाने की सुविधा नहीं हो और मन में ऐसा भाव हुआ, "अब हम उसे कैसे लौटाएँगे? उसे 'ना' कह देंगे।" अब ऐसा भाव आते ही मन में विचार आए कि यदि मेरे पास से कोई ले गया हो और वह ऐसा भाव करे तो मेरी क्या दशा होगी? अर्थात्, हमारे भाव बिगड़ें नहीं इस प्रकार हम रहें, वही मानव धर्म है। किसी को दु:ख न हो, वह सबसे बड़ा ज्ञान है। इतना संभाल लेना। चाहे कंदमूल नहीं खाते हों, किन्तु मानवता का पालन करना नहीं आए तो व्यर्थ है। ऐसे तो लोगों का हड़पकर खानेवाले कई हैं, जो लोगों का हड़पकर जानवर योनि में गए हैं और अभी तक वापस नहीं लौटे हैं। यह तो सब नियम से है, यहाँ अँधेर नगरी नहीं है। यहाँ गप्प नहीं चलेगी। प्रश्नकर्ता : हाँ, स्वाभाविक राज है!Page Navigation
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