Book Title: Malva me Jain Dharm Aetihasik Vikas Author(s): Tejsinh Gaud Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 5
________________ २४४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ प्रभामण्डल भी अंतरिमकाल के लक्षणों से युक्त है । इसमें उत्तर गुप्तकालीन अलंकरण का अभाव है । लिपिविज्ञान की दृष्टि से भी ये प्रतिमा लेख ईस्वी चौथी शती के ठहरते हैं । इन लेखों की लिपि गुप्त सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के उन लेखों से मिलती है जो सांची और उदयगिरि की गुफाओं में मिले हैं । इन तीर्थंकर प्रतिमाओं के आधार पर प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी ने विवादास्पद गुप्त नरेश रामगुप्त पर पर्याप्त प्रकाश डालकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि समुद्रगुप्त पश्चात् रामगुप्त सम्राट् हुआ था । किन्तु अभी इस मत को मान्यता नहीं मिली है साथ ही अभी यह भी निराकरण होना शेष है कि इन प्रतिमाओं के लेखों में उल्लिखित वही रामगुप्त है अथवा कोई अन्य । इसके अतिरिक्त इस काल की एक और दूसरी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है जैनाचार्य सिद्धसेन दिवाकर | जैनग्रन्थों में इन्हें साहित्यिक एवं काव्यकार के अतिरिक्त नैयायिक और तर्कशास्त्रियों में प्रमुख माना है । सिद्धसेन दिवाकर का जैन इतिहास में बहुत ऊँचा स्थान है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदाय उनके प्रति एक ही भाव से श्रद्धा रखते हैं। किंवदन्ती है कि एक बार राजा चन्द्रगुप्त ने इनसे कल्याण मंदिर स्तोत्र का पाठ करने का आग्रह किया। राजा के आग्रह पर इन्होंने कल्याण मंदिर स्तोत्र का पाठ किया। पाठ समाप्त होते ही उज्जयिनी के महाकाल मंदिर में शिवलिंग फट गया और उसके मध्य से पार्श्वनाथ की मूर्ति निकल आई । पं० सुखलालजी ने सिद्धसेन दिवाकर के विषय में इस प्रकार लिखा है, "जहाँ तक मैं जान पाया हूँ, जैन परम्परा में तर्कविद्या के, और तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मय के आदि प्रणेता हैं सिद्धसेन दिवाकर ।” सिद्धसेन का सम्बन्ध उनके जीवन कथानकों के अनुसार उज्जयिनी और उसके अधिपति विक्रम के साथ अवश्य रहा है, पर यह विक्रम कौनसा है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । अभी तक के निश्चित प्रमाणों से जो सिद्धसेन का समय विक्रम की पांचवीं और छठी शताब्दी का मध्य जान पड़ता है, उसे देखते हुए अधिक सम्भव यह है कि वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगुप्त रहा होगा । जो विक्रमादित्य रूप से प्रसिद्ध हुए। सभी नये-पुराने उल्लेख यह कहते हैं कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे । सिद्धसेन ने गद्य में कुछ लिखा हो तो पता नहीं है। उन्होंने संस्कृत में बत्तीसियाँ रची हैं, जिनमें से इक्कीस अभी लभ्य हैं। उनका प्राकृत में रचा 'सन्मतिप्रकरण' जैनदृष्टि और मन्तव्यों को तर्क शैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करने वाला जैन १ २ संस्कृति केन्द्र उज्जयिनी, पृष्ठ ११७ स्व० बाबू श्री बहादुरसिंह जी सिंधी स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ १०, ११, १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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