Book Title: Malva me Jain Dharm Aetihasik Vikas
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf

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Page 1
________________ मालवा में जैनधर्म : ऐतिहासिक विकास डॉ. तेजसिंह गौड़, एम.ए., पी-एच.डी. भारतीय इतिहास में मालवा का अपना एक विशिष्ट स्थान है। भारत के इस नाभिस्थल पर प्राचीनकाल से ही यहां के सभी प्रमुख धर्म पल्लवित होते रहे हैं। जहाँ तक जैनधर्म का प्रश्न है, सर्वप्रथम मालवा में जैनधर्म के अस्तित्व का दिगम्बर परम्परा से पता चलता है कि भगवान महावीर स्वामी अपने साधनामय जीवन में उज्जैन पधारे थे। वे उज्जयिनी के अतिमुक्तक नामक श्मशान भूमि में आकर ध्यान मग्न हुए थे, उस समय रुद्र नामक व्यक्ति ने उन पर घोर उपसर्ग किया था, परन्तु वह अपने ध्यान में दृढ़ और निश्चल बने रहे। रुद्र की रौद्रता उनको तपस्या से विचलित न कर सकी। त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित में चण्डप्रद्योत, जो कि अवन्ति नरेश था, के जैनधर्मावलम्बी होने का विवरण मिलता है। विवरण संक्षेप में इस प्रकार है कि सिन्धु सौवीर के राजा उदायी के पास जीवंत स्वामी की प्रतिमा थी। किसी प्रकार वह प्रतिमा चण्डप्रद्योत ने हस्तगत कर ली। इसी से उदायी ने चण्डप्रद्योत पर आक्रमण कर उसे बन्दी बना लिया। दशपुर में चातुर्मास हुआ और यहीं जीवंतस्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कर एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया गया लेकिन इस युग के अभी तक कोई पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त नहीं होते हैं। मौर्यकालीन मालवा में जैनधर्म-सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे अंतिम समय में जनसाधु होकर दक्षिण चले गये थे। दक्षिण भारत की श्रमणबेलगोला की गुफा में जैनधर्म सम्बन्धी शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनमें 'चन्द्रगुप्ति' नामक राजा का उल्लेख आता है जिसका सम्बन्ध विद्वानों ने चन्द्रगुप्त मौर्य से स्थापित किया है। चन्द्रगुप्ति ने जैनधर्म में दीक्षा ली, इसका उल्लेख भद्रबाहु चरित, आराधना कथाकोश, पुण्यास्रव कथाकोश आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। द्वादश वर्षीय दुर्भिक्ष तथा मुनियों के दक्षिण जाने की कथा अन्यान्य ऐतिहासिक तथ्यों से प्रामाणिक सिद्ध होती है। तब यह भी प्रमाणित हो जाता है कि इस समय मालवा में जैनधर्म अच्छी अवस्था में था तथा निरन्तर उन्नति की ओर अग्रसर हो रहा था। १ उत्तरपुराण ३३११७४ २ The Age of Imperial Unity, Vol. II, page 417. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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