Book Title: Malva me Jain Dharm Aetihasik Vikas
Author(s): Tejsinh Gaud
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf

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Page 13
________________ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ मुंज का भतीजा और सिन्धुल का पुत्र भोज (१०१० १०५३ ई० तक) भारतीय लोक कथाओं में प्राचीन विक्रमादित्य की भांति ही प्रसिद्ध है । भोज भी जैनधर्म का पोषक था । उसके समय में धारा नगरी दिगम्बर जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र थी और राजा भोज जैन विद्वानों और मुनियों का बड़ा आदर करता था । सरस्वती विद्या मन्दिर के नाम से उसने एक विशाल विद्यापीठ की स्थापना की थी। उसने जैन मंदिरों का भी निर्माण करवाया बताया जाता है । ऊपर बताये गये विद्वानों में से अनेक दिग्गज जैनाचार्यों ने उससे सम्मान प्राप्त किया था । आचार्य शांतिसेन ने उसकी राज सभा में अनेक अजैन विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था । भोज का सेनापति कुलचन्द्र भी जैनी था । धनंजय, धनपाल, धनिक आदि गृहस्थ जैन कवियों ने इसके आश्रय में काव्य साधना की थी। भोज के उपरान्त जयसिंह प्रथम (१०५३-६० ई०) राजा हुआ । उसके उत्तराधिकारी निर्बल रहे। उनमें नरवर्मनदेव (११०४११०७ ई०) महान योद्धा और जैनधर्म का अनुरागी था । उज्जैन के महाकाल मन्दिर में जैनाचार्य रत्नदेव का शैवाचार्य विद्या शिववादी के साथ शास्त्रार्थ उसी समय हुआ । इस राजा ने जैन गुरु समुद्रघोष और श्री वल्लभ सूरि का भी सम्मान किया था । उसके पुत्र यशोवर्मनदेव ने भी जैनधर्म और जैन गुरुओं का आदर किया । जिनचन्द्र नामक एक जैनी को उसने गुजरात प्रान्त का शासक नियुक्त किया था । १२वीं - १३वीं शताब्दी में धारा के परमार नरेश विन्ध्यवर्मा और उसके उत्तराधिकारियों में सुभट वर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल और जैतुंगदेव ने पं० आशाघर आदि जैन विद्वानों का आदर किया था । २५२ रत्नमण्डन गणिकृत झांझण प्रबन्ध और पृथ्वीधर चरित्र तथा उपदेश तरंगिणी से ज्ञात होता है कि परमार राजा जयसिंहदेव तृतीय ( ई० सन् १२६१-८० ) के मंत्री पेथड कुमार ने मांडव में ३०० जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार किया और उन पर सोने के कलश चढ़वाये थे । इसी प्रकार अठारह लाख रुपये की लागत का "श्री शत्रुंजयावतार' नाम का विशाल मन्दिर बनवाया था । पेथड के पुत्र झांझण ने बहुत-सी धर्मशालाएँ, पाठशालाएं, जैनमन्दिर स्थान-स्थान पर बनवाए और एक बहुत विशाल ग्रंथालय स्थापित किया था । ७०० जैन मन्दिरों की संख्या केवल जैन श्वेताम्बरों की थी । चांदाशा नाम के धनी व्यापारी ने ७२ जिन देवालय और ३६ दीपस्तम्भ मांडव नगर में बनवाये थे । धनकुबेर श्रीमाल भूपाल लघु शांतिचन्द्र जावड़शा ने ऋषभदेव, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के सौंधशिखरी पाँच जिन देवालय बनवाए और उनमें एक ग्यारह सेर सोने की तथा दूसरी बाईस सेर चाँदी की और शेष पाषाण की जिन प्रतिमाएं साधु रत्नसूरि की आज्ञा से स्थापित कराई थीं। इस उत्सव में ११ लाख रुपये व्यय किये । एक लाख रुपये तो केवलमुनि के मांडव नगर प्रवेश के समय व्यय किये थे । इस प्रकार और भी प्रमाण इस बात की पुष्टि करने वाले मिलते हैं कि ई० सन् १३१० यानि मुसलमानों के आने तक परमार राजाओं की राजधानी मांडव एक समृद्ध नगर था, जिसका विध्वंस बाद में मुसलमानी शासन काल में हुआ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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