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व्यापारी आत्मालोचन करें
अर्थ साधन है, साध्य नहीं
आज मैं व्यापारी लोगों के बीच उपस्थित हूं । व्यापारी लोग अर्थाजन करने के लिए व्यापार करते हैं । अर्थ गृहस्थ की एक अनिवार्य अपेक्षा है, उसके लिए इसका बड़ा उपयोग है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता । यदि कोई करता है तो वह यथार्थ को अनदेखा करता है, झुठलाता है । पर अर्थ के संदर्भ में व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् होना चाहिए । रूपक की भाषा में वह रोग की दवा है, दैनिक भोजन नहीं । वह सामाजिक / पारिवारिक जीवन चलाने का साधन है, साध्य नहीं । इसे साध्य मान लेना एक मौलिक भूल है, भयंकर भूल है । इतनी भयंकर कि जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन का सारा क्रम ही बदल जाता है । आज ऐसी स्थिति बहुत प्रकट और व्यापक रूप में दिखाई पड़ रही है । यह इस बात की सूचना है लोगों का अर्थ के प्रति दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है । उन्होंने साधन के स्थान पर उसे साध्य मान लिया है, लक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया है, उसे जीवन-मूल्यांकन का मौलिक आधार बना लिया है । ऐसी स्थिति में वह उसकी प्राप्ति के लिए शोषण, धोखा, अन्याय, कालाबाजारी जैसी कोई भी बुराई को स्वीकार करने में संकोच नहीं करता, उससे परहेज नहीं करता । येन-केन-प्रकारेण अधिक-से-अधिक धन बटोर लेने में ही वह अपने जीवन की सार्थकता महसूस करता है । व्यापारी लोग स्वयं को टटोलें । क्या उनकी यह स्थिति नहीं है ? अपने व्यापारिक जीवन से प्रामाणिकता, नैतिकता, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी जैसे तत्त्वों को विदा नहीं कर रहे हैं ? एक वह भी समय था, जब भारतीय व्यापारियों की पूरे विश्व में एक शाख थी, प्रतिष्ठा थी । प्रामाणिकता, नैतिकता आदि के लिए दूसरे दूसरे राष्ट्रों के लिए उदाहरण थे, आदर्श थे । परन्तु अब तो वह स्थिति अतीत की स्मृतिमात्र रह गई है । उपस्थित व्यापारियों के माध्यध से भारत के पूरे व्यापारी वर्ग से पुनः - पुनः कहना चाहता हूं कि अर्थ के लिए वह अपने नैतिक स्तर को न गिराए, अमूल्य जीवन को चंद चांदी के टुकड़ों की कीमत पर न बेचे । वह इस तथ्य का आत्मसात् करे कि शान्ति और सुख धन में नहीं, संयम, सादगी और सात्विक वृत्तियों में है । धन की भूमिका अधिक-से-अधिक
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महके अब मानव-मन
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