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सम्पादकीय
प्रदेशबन्धका मूलप्रकृतिप्रदेशबन्ध और उत्तरप्रकृतिप्रदेशबन्ध के चौबीस अनुयोग द्वारोंमें से परिमाण अनुयोगद्वार तकका भाग सम्पादन होकर अनुवादके साथ प्रकाशित हुए लगभग तीन माह हुए हैं । उसके कुछ ही दिन बाद उसका शेष भाग सम्पादन होकर अनुवादके साथ प्रकाशित हो रहा है । पूर्व भागके साथ यह भाग भी मुद्रित होने लगा था, इसलिए इसके प्रकाशित होने में अधिक समय नहीं लगा है ।
पूर्व भागों के समान इस भागके सम्पादनके समय भी हमारे सामने दो प्रतियाँ रही हैंएक प्रेस कापी और दूसरी ताम्रपत्र प्रति । मूल ताड़पत्र प्रति तो अन्त तक नहीं प्राप्त हो सकी है । इस भागके सम्पादनमें उक्त दोनों प्रतियों का समुचित उपयोग हुआ है । दोनों प्रतियों की सहायता से जिन पाठोंका संशोधन करना सम्भव हुआ उनका संशोधन करनेके बाद भी बहुत से ऐसे पाठ रहे हैं जो चिन्तन द्वारा स्वतन्त्ररूपसे सुझाए गये हैं । इस प्रकार जितने भी पाठ मूलमें सम्मिलित किये गए हैं उन्हें स्वतन्त्ररूपसे [] ब्रेकेटके अन्दर दिखलाया गया है और जिन पाठोंका संशोधन नहीं हो सका है उन्हें वैसा ही रहने दिया है। अभी तककी जानकारी के अनुसार यही कहना पड़ता है कि मूडबिद्री में "महाबन्धकी एक ताड़पत्र प्रति उपलब्ध है । वह भी अधिक मात्रामें बुटित और स्खलित है । उसमें भी प्रदेशबन्ध पर स्खलनका सबसे अधिक प्रभाव दिखलाई देता है । इस भागमें ऐसे अनेक प्रकरण हैं जिनका यत्किञ्चित् अंश भी शेष नहीं बचा है | स्वामित्व आदिके आधारसे उनकी पूर्ति करना भी सम्भव नहीं था, इसलिए उन्हें हमने त्रुटित स्थितिमें ही रहने दिया है ।
महाबन्धकी उपलब्ध हुई ताड़पत्र प्रति कितनी पुरानी है, इसकी जानकारी अभी तक नहीं हो सकी है। स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके अन्तमें अलग-अलग प्रशस्ति उपलब्ध होती है । उन दोनों प्रशस्तियोंसे इतना बोध अवश्य होता है कि सेनकी पत्नी मल्लिकव्वाने श्री पचमी व्रत उद्यापनके फलस्वरूप महाबन्धको लिखाकर आचार्य माघनन्दिको भेट किया । इसी आशयकी एक प्रशस्ति प्रदेशबन्ध के अन्तमें भी आई है । उसे हम अनुवादके साथ आगे उद्घृत कर रहे हैं। स्थितिबन्ध और प्रदेशबन्ध अन्तमें आई हुई प्रशस्ति में मेघचन्द्र व्रतपतिका विशेषरूप से उल्लेख किया है और माघनन्दि व्रतपतिको उनके पादकमलोंमें आसक्त बतलाया है ।
मेरा विचार था कि इन प्रशस्तियोंके आधारसे मैं कुछ लिखूँ । किन्तु वर्तमान में इस प्रकारका प्रयत्न करना असामयिक होगा, क्योंकि धवला और सम्भवतः जयधवलाके अन्तमें पुस्तक दान करनेवालेकी जो प्रशस्ति उपलब्ध होती है, उसके अनुवाद के साथ प्रकाशमें आनेके बाद ही इस पर सर्वाङ्गरूपसे विचार होना उचित प्रतीत होता है ।
यह हम पिछले भागोंकी प्रस्तावना में बतला आये हैं कि स्थितिबन्धके मुद्रित होनेके बाद ही हमें ताम्रपत्र प्रति उपलब्ध हो सकी थी। इसलिए अभी तक उस प्रतिसे स्थितिबन्धका मिलान होकर न तो पाठ-भेद लिए जा सके हैं और न शुद्धि-पत्र ही तैयार हो सका है। प्रकृतिबन्धका सम्पादन और अनुवाद तो हमने किया ही नहीं है, इसलिए उसके सम्बन्धमें हम विचार ही करनेके अधिकारी नहीं हैं। इतना अवश्य ही संकेत कर देना अपना कर्तव्य समझते
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