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[ १२ ] है। सत्प्ररूणाके सूत्र ६३ के पाठके सम्बन्धमें वह उतना मतभेद और बखेड़ा कभी न उत्पन्न होता, यदि प्रारम्भसे ही हमें ताड़पत्रीय प्रतियोंके मिलानकी सुविधा प्राप्त हुई होती और वह सब विवाद तभी समाप्त हो सका, जब हमारे द्वारा अनुमानित पाठका ताडपत्रीय प्रतियोंसे पूर्णतः समर्थन हो गया। तात्पर्य यह कि जब तक एक बार इस सम्पूर्ण प्रकाशित पाठका ताड़पत्रीय प्रतियों अथवा उनके चित्रोंसे विधिवत् मिलान कर मूलपाठ अङ्कित न कर लिये जायेंगे, तबतक हमारा यह सम्पादन-प्रकाशन कार्य अधूरा ही गिना जायगा और उन मूल प्रतियोंकी आवश्यकता व अपेक्षा बनी ही रहेगी।
पाठ-संशोधन पूर्णतः प्रामाणिक रीतिसे सम्पन्न हो जानेके पश्चात् इन ग्रन्थोंके विशेष अध्ययनकी समस्या सम्मुख उपस्थित होती है। इन ग्रन्थोंका विषय कर्म-सिद्धान्त है जो जैन धर्म और दर्शनका प्राण कहा जा सकता है । यह विषय जितने विस्तार, जितनी सूक्ष्मता, और जितनी परिपूर्णताके साथ इन ग्रन्थोंमें-उनके सूत्रों और टीकाओंमें वर्णित है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं । इसका जो हिन्दी अनुवाद और साथ-साथ थोड़ा बहुत तुलनात्मक अध्ययन व स्पष्टीकरण इस प्रकाशनमें किया जा सका है वह विषय-प्रवेशमात्र ही समझना चाहिये। इस विषयसे हमारा उत्तरकालीन समस्त साहित्य ओत-प्रोत है। दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्यमें समान रूपसे अनेक ग्रन्थोंमें कर्मसिद्धान्तकी नाना शाखाओं और नाना तत्त्वोंका प्रतिपादन पाया जाता है। इस समस्त कर्म सिद्धान्तसम्बन्धी साहित्यका ऐतिहासिक क्रमसे अध्ययन करना आवश्यक है,जिससे इसके भिन्न तत्त्वों और नाना मतोंका विकास स्पष्ट समझमें आ सके और उसका सर्वांग-सम्पूर्ण व्याख्यान आधुनिक रीतिसे किया जा सके। भारतीय साहित्यमें कर्मसिद्धान्तकी चर्चा इतनी व्यवस्थित रूपमें अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलती है।
जिन्होंने अपने विपुल दानों द्वारा हार्दिक उत्साहके साथ इन ग्रन्थोंका सम्पादन-प्रकाशन कराया है, हम भली भाँति जानते हैं, कि वे साहू शान्ति प्रसादजी और उनकी धर्मपत्नी रमा रानी जी, किसी व्यापारिक बुद्धिसे प्रभावित नहीं हुए, किन्तु शुद्ध धार्मिक और साहित्योद्धारकी भावनासे ही प्रेरित थे। अतएव हम आशा ही नहीं, किन्तु विश्वास भी करते हैं कि वे अपने विशुद्ध और उच्च कार्यके उक्त अवशिष्ट अंशोंपर अवश्य ध्यान देंगे और ऐसी योजना बना देंगे, जिससे वह कार्य निर्विलम्ब प्रारम्भ होकर सन्तोष जनक रीतिसे गतिशील हो जावे।
इस सहित्योद्धारकी जो यह एक मंजिल इस ग्रंथके प्रकाशनके साथ समाप्त हो रही है, उसके लिए हम मूडाबिद्री के सिद्धान्त वसदिके भट्टारकजी व अन्य सब अधिकारियों, प्रतिलिपियोंके स्वामियों, सम्पादकों, प्रकाशकों एवं अन्य विद्वानोंको हार्दिक धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने इस महान कार्यको सफलतामें सहयोग प्रदान किया है।
हीरालाल जैन आ० ने० उपाध्ये प्रधान सम्पादक
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