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प्राथमिक वक्तव्य
(प्रथम संस्करण, १६५८ से) महाबन्धकी इस सातवीं जिल्दके साथ एक महान् साहित्यिक निधिका प्रकाशन सम्पूर्ण हो रहा है। इसके लिये उसके विद्वान् सम्पादक पं० फूलचन्द्र शास्त्री तथा भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारियोंको जितना धन्यवाद दिया जाय, थोड़ा है।
विद्वान् पाठकोंको ज्ञात होगा कि प्रस्तुत महाबन्ध आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलीकी अद्वितीय सूत्र-रचना षट्खण्डागमका ही छठा खण्ड है। इसके पूर्वके पाँच अर्थात् जीवट्ठाण, खुहाबन्ध, बंधसामित्त, वेदणा और वग्गणा खण्डोंका सम्पादन व प्रकाशन कार्य भी विदिशा निवासी श्रीमन्त सेठ सिताबराय लक्ष्मीचन्द्रजी द्वारा स्थापित जैन-साहित्य उद्धारक ग्रन्थमाला द्वारा सम्पूर्ण हो चुका है। इस प्रकार पूरा षट्खण्डागम अपनी वीरसेन कृत धवला टीका
और आधुनिक हिन्दी अनुवाद सहित १६+७=२३ जिल्दोंमें समाप्त हुआ है जिनकी पृष्ठसंख्या दस हजारसे ऊपर होती है। धवला टीकाकी श्लोक-संख्या परम्परानुसार बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण और महाबन्धकी चालीस हजार श्लोक प्रमाण मानी गई है। यदि अधिक नहीं तो इतना ही हम अनुवादका प्रमाण मान लें तो इस पूरी प्रकाशित रचनाका प्रमाण लगभग सवा दो लाख श्लोक प्रमाण हो जाता है। धवलाका प्रथम भाग सन् १९३६ में प्रकाशित हुआ था और अब सन् १९५८ में उसका अन्तिम सोलहवाँ भाग और महाबन्धका अन्तिम सातवाँ भाग प्रकाशित हो रहा है। इस प्रकार गत अठारह-उन्नीस वर्षोंमें जो यह विपुल साहित्य व्यवस्थित रीतिसे प्रकाशित हो सका इसे इस युगकी विशेष साहित्यिक अभिरुचिका ही प्रभाव कहना चाहिये ।
जैन तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्ग श्रुतके अन्तर्गत जिस बारहवें अङ्ग दिट्टिवादका समस्त जैन परम्परानुसार लोप हो गया है, उसके एक अंशका अर्थोद्धार आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भगवान् पुष्पदन्त और भूतबलीने “पट्खण्डागम'सूत्रोंके रूपमें किया था। इसी महान् घटनाको स्मृतिमें ज्येष्ठ शुक्ला पश्चमीकी तिथि आज तक श्रुतपश्चमी या ऋषिपञ्चमीके नामसे मनाई जाती है। वर्तमान वीर निर्वाण संवत् २४८४ को श्रुतपञ्चमी इस दृष्टिसे विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है कि इस वर्ष में वही पट्खण्डागम"शताब्दियों तक शास्त्रमण्डारमें निरुद्ध रहनेके पश्चात् पुनः प्रकाशमें आया है।
प्राचीन साहित्यके प्रकाशनकी यह सफलता बड़ी सन्तोषजनक है। किन्तु यह समझ बैठना हमारी बड़ी भूल होगी कि इस साहित्यके उद्धारका कार्य परिसमाप्त हो गया । इन परमागम ग्रन्थों और उनकी टीकाओंके सम्पादन-प्रकाशन कार्यको प्राचीन साहित्योद्धार कार्यकी प्रथम सीढी कहना उचित होगा। जैसा कि उक्त ग्रन्थ-भागोंकी प्रस्तावनाओं में हम बारम्बार कह चुके हैं, इनका पाठ-संशोधन सीधा मूल ताडपत्रीय प्रतियों परसे नहीं हुआ, किन्तु उनपरसे की हुई प्रतिलिपियोंके आधारसे ही विशेषतः हुआ है। जो थोड़ा-बहुत मिलान सीधा ताडपत्रीय प्रतियोंसे दूसरों के द्वारा कराया जा सका है, उससे सम्पादकोंको पूरा सन्तोष नहीं हुआ। तथापि उस थोड़ेसे मिलानके द्वारा ही यह सिद्ध हो चुका है कि समस्त उपलभ्य ताड़पत्र प्रतियों से मिलान कितना आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है, मूडबिद्रीमें षटखण्डागमकी एक सम्पूर्ण और दो खण्डित ताडपत्रीय प्रतियाँ हैं। इनके पाठोंमें
भी परस्पर कहीं-कहीं भेद है, जैसा धवला भाग तीनमें प्रकाशित पाठान्तरोंसे देखा जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only
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