Book Title: Lord Mahavira Vol 01
Author(s): S C Rampuria
Publisher: Jain Vishva Bharati Institute

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Page 179
________________ 170 Lord Mahåvîra exactly the same as has been explained above according to the Mûlâcâra tradition, namely, observing purity and freedom from all sinful deeds without any categories is Sâmâyika while splitting the same into classes, which happen in the present case to be five, is Chedopasthanika Samyama. According to Áyáranga ( II, 15, 1013) Lord Mahavira adopted the Sâmâyika Samyama at the time of the renunciation. This is described as follows: तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ । करेत्ता सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं 'त्ति कट्टु सामाइयं चारित्तं पडि वज्जइ । सामइयं चरित्तं पडिवज्जित्ता देवपरिसंमणुय परिसंच आलिक्खचित्तभूयमिव ठवेइ।' Here not only the lord is said to have adopted the Samaiya Sanjama, but the nature of the Samaiya Sanjama is also explained, namely, 'I renounce all sinful acts'. There is here no mention of any kinds of vows. But when he attained omniscience he preached the Five Great Vows: तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पण - णाणदंसण - धरे गोयमाईणं णिग्गंथागं पंचम-हव्वयाइं सभावणाइं छज्जीवणिकायाइं आइक्खइ भासइ परूवेइं (२, १५, १०२४) Thus Lord Mahâvîra was himself observing the all comprehensive and omnibus Sâmâyika Samyama and it was only after his enlightenment that he preached the Five Vows i.e., Chedovatthaniyama. Some fresh light is thrown on the subject by Siddhasena Gani.Commenting on Tatvartha Sutra IX, 18 after explaining the word Sâmâyika etymologically, he says:--- सामायिकं द्विप्रकारम्-इत्वर- कालं यावज्जीविकं च । तत्राद्यं प्रथमान्त्य - तीर्थकर - तीर्थयोः प्रव्रज्याप्रतिपत्तावारोपितं शास्त्रपरिज्ञाध्ययनादिविदः श्रद्दधतः छेदोपस्थाप्य-संयमारोपणविशिष्टतर- त्वाद विरतेः सामायिक-व्यपदेशं जहातीत्यत इत्वर- कालम् । मध्यम्-तीर्थकृतां विदेहक्षेत्रर्तिनां च यावज्जीविकं, प्रव्रज्या प्रतिनत्तिकालादारभ्य आप्राण-प्रयाण-कालादवतिष्ठते । प्रथमान्त्य-तीर्थंकर-शिष्याणां सामान्य- सामायिकपर्यायच्छेदो विशुद्धतर- सर्वसावद्य-योगविरताववस्थानं विविक्ततर- महाव्रतारोपणं छेदोपस्थापनमः । छेदोपस्थापनमेव छादोपस्थाप्यम, पूर्व - पर्यायच्छेदे सति उत्तर- पर्याये उपस्थापनम्, भावे यतो विधानात । तदपि द्विधा, निरतिचार- सातिचार-भेदेन । तत्र शिक्षकस्य निरतिचारमधीत् - विशिष्टाध्ययनविदः मध्यम-तीर्थंकर - शिष्यो वा यदोपसम्पद्यते चरम - तीर्थंकर-शिष्याणामिति।

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