Book Title: Lok Madhyam Jan Shikshan aur Chunotiya Author(s): Kiran Sipani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf View full book textPage 4
________________ लोकगीत लोकगीत लोक की धरोहर हैं, किसी व्यक्ति की नहीं । ये केवल शब्दरचना ही नहीं लोक का पूरा शास्त्र लिए होते हैं। उनमें सामूहिक मंगलेच्छा निहित मिलती है। वे अपने मूल समूह की संरचना भी है। इनमें शब्द भी समूह का, स्वर भी समूह का, ताल, लय, छंद भी समूह का होता है। ये किसी भी समाज, सभ्यता, संस्कृति के दर्पण, रक्षक व पोषक होते हैं। लोक जीवन की सुखद भावनाओं ओर कमनीय कामनाओं के सहारे उन्हें वाणी का रूप मिलता है। एक प्रकार से लोक की गुंजन में कुछ निश्चित शब्दों का जमाव और उनके गायन से लोक का हर्षाव इन गीतों का महत्त्व परिभाषित करते हैं। लोकगीतों के कई रूप हैं। विभिन्न प्रान्तों में अनुष्ठान, बनभट, उनके प्रयोग गायन समय, गायक कलाकार और अन्य विशेषताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्गीकरण हुए हैं लेकिन मूलतः लोकगीत चार श्रेणी के माने जा सकते हैं१) संस्कार सम्बन्धी लोकगीत २) सामाजिक लोकगीत ३) धार्मिक लोकगीत ४) मनोविनोद के लोकगीत लोकगीतों की ही कोटि का एक भेद भजन, हरजस, प्रभाती, साख- सबद आदि भी हैं। इन लोकगीतों की प्रभावना और अति व्याप्ति जीवन के प्रत्येक छोर पर देखी जा सकती है। इसीलिए यह मान्यता चली आई है कि बिना गीत के कोई रीत नहीं होती है। भारत में जन्म से लेकर मृत्यु तक लोकगीतों की परम्पराबद्ध श्रृंखला को देखा जा सकता है। सरलता, समरसता, सरसता के साथ मधुरता और लयबद्धता लोकगीतों के वे गुण हैं जिनके कारण वे शीघ्र ही कंठस्थ हो जाते हैं। लोक जीवन में ये लोकशिक्षण के महत्त्वपूर्ण आधार बने हुए हैं। आधुनिक युग के चिंतकों और प्रचारकों ने भी लोकगीतों की शक्ति का लोहा माना है। आधुनिक माध्यमों की सर्वसाधारण की पहुंच के लिए भी लोकगीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। इस प्रकार भारत के पारम्परिक लोक माध्यम अपना स्वरूप और विस्तार बनाये हुए हैं। आधुनिकता की चमक में यद्यपि चकाचौंध होकर अपने स्वरूप को खोते जा रहे हैं तथापि इनकी अपनी समृद्ध परम्परा रही है और इसी परम्परा ने इन माध्यमों को कालजयी भी बना रखा है। 1 शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International संचार लोक व्यवहार का आधार स्तम्भ है। किसी सोच, किसी संकल्प और किसी सृजन को औरों तक पहुंचाने या समष्टिगत करने के प्रयासों में संचार सेतु का कार्य करता है। प्राचीन काल में संचार को प्रथमत: 'नाद' नाम दिया गया और उसकी कल्पना श्रेष्ठ सत्ता या ईश्वरीय रूप में की गई। इसके पीछे धार्मिक भाव चाहे जो रहा हो किन्तु मूलतः विचारों की संप्रेषणीयता ही थी और उसे येन-केन-प्रकारेण एक मन या एक हाथ से अनेक मना या अनेक हस्ता करने का चिंतन मुख्य रहा। इसी दृष्टिकोण का परिचायक है लोकमाध्यमों के पीछे का सोच । शब्द, वाणी, लिपि और कला- उत्पाद से लेकर अभिनय या प्रदर्शन भी इसी के अंग रहे हैं। इस रूप में आंगिक, वाचिक और कालिक तथा लिखित एवं वस्तुगत सर्जित रूप संचार के मूल स्वरूप कहे जा सकते हैं। लोक माध्यमों में यही अवधारणा निहित मिलती है। लोक माध्यमों में चाहे लोक कथा हो, लोकनाट्य हो, लोकनृत्य हो, लोकगीत हो अथवा और कोई लोकशिल्प, वे कहीं न कहीं एक संकल्प और एक विचार को एक से अनेक तक प्रसारित करने का निहितार्थ लिए होते हैं। लोकमाध्यमों के लिए कहा जा सकता है कि वे सामाजिकता के विस्तार का पूरा वाङ्मय लिए होते हैं। इन माध्यमों ने न केवल परिवार और परिवार के बीच ही बल्कि समाज और समाज के बीच सम्बन्धों और संवादों का सिलसिला शुरू किया तथा विभिन्न चीजों, शिल्पों, विचारों, मान्यताओं और आज के सोच से मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित संचालित किया । एक प्रकार से पारस्परिक लोक माध्यम सर्जन से लेकर आलोड़न-बिलोड़न और चिंतन तक की अवधारणा अपने मूल में लिए होते हैं । इसीलिए इन्हें संचयी कहा जाता है क्योंकि ये माध्यम हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित और समाहित किये अपने स्वरूप को सुविधानुसार विकसित एवं वर्धित करते रहे हैं। आज के विचारों ने इन्हें सांस्कृतिक धरोहर कह दिया और यही विचार एक हद तक इन्हें स्थगित और सीमित करने का हथकण्डा ही कहा जायेगा। यहां विचार यह भी है कि अति यांत्रिक युग में देहाती या लोक माध्यमों को भले ही जंगली, नामसझ या शताब्दियों पूर्व के सोच वाले लोगों के अनुरंजन के अलावा कुछ नहीं माना जाता है अथवा दिन-ब-दिन परिवर्तित होते परिवेश में For Private & Personal Use Only विद्वत् खण्ड / ३९ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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