Book Title: Lok Madhyam Jan Shikshan aur Chunotiya Author(s): Kiran Sipani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf View full book textPage 1
________________ डॉ० किरण सिपानी तेजी से बदलता विश्व परिदृश्य एक ओर तो संभावनाओं के नित नये द्वार खोल रहा है और दूसरी ओर नये विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों के माध्यम से व्यावसायिक, तकनीकी, इंजीनियरी, कृषि एवं विज्ञान संबंधी नवीन पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की गयी है। खुले विद्यालयों के तहत मुख्यधारा से कटे एवं समस्याग्रस्त विद्यार्थियों को शिक्षा की सुविधाएँ दी जा रही हैं। नारी शिक्षा एवं प्रौढ़ शिक्षा से संबंधित उल्लेखनीय प्रयास किये गये हैं। विदेशों में अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ सुलभ हुई हैं। परन्तु इतने विकास के बावजूद शिक्षा सामाजिक, नैतिक, मानवीय एवं आध्यात्मिक सरोकारों से दूर होती जा रही है। विद्यार्थियों में अकेलापन, कुंठा, असुरक्षा एवं भय की भावनाएँ घर कर रही हैं। हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है और बुरी आदतें पनप रही हैं। जीवन अधिक बोझिल, अधिक उच्छृंखल और जटिल हो गया है। गुणवत्ता का स्थान • विस्तार ने ले लिया है। पूरा विश्व शिक्षा की समस्याओं और समाधानों में विचारमग्न है। सभी शिक्षाविदों की मान्यता है कि 'सा विद्या या विमुक्तये'विद्या व्यक्ति को सीमाओं से मुक्त करती है । विद्या की परमार्थक एवं अर्थकरी रूप उसके विभिन्न लक्ष्यों को स्पष्ट करते हैं। परमार्थकरी विद्या का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त कराना ही नहीं बल्कि विद्वत खण्ड / ३२ Jain Education International शिक्षा के प्रतिमान बदल गये हैं। पहले जहाँ श्रेष्ठता कसौटी थी, आज पैसे न आसन खिसका लिया है। प्रतिभासम्पन्न को अंगूठा दिखाते हुए कम अंक पाने वाला धनाढ्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा के अवसरों को अपने लिए सुलभ बना लेता है और अब तो बाँहें फैलाकर आमंत्रण देते बाजारवाद ने सबको पीछे धकेल दिया है। क्रेडिट पर पढ़िए, प्रतिभा को बंधक रखिये, कैरियर बनाइये और उधार चुकाइये। मीठी आवाज में पुकार -पुकार कर अपने प्रलोभनों अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं में फाँसते नित नये इन्स्टीच्यूट गली-कूचों में उग रहे हैं। क्या मजाल कि आप सोने और पीतल में फर्क कर पायें। अच्छे से अच्छे, बड़े से बड़े स्कूल-कॉलेज में चेक बुक लेकर पीछे के दरवाजे से घुसने की सहूलियत हो गयी है। बड़े कदों के स्कूल-कॉलेज-इन्स्टीच्यूट में पढ़नेवालों की डिग्रियों की कीमत कई गुना बढ़ जाती है और विवाह - बाजार में डिमांड भी ऊँची हो जाती है। मान्यता प्राप्त विद्यालयों से सांठ-गांठ कर कई निजी (प्राइवेट) विद्यालय लाखों कमा रहे हैं। शिक्षा तंत्र में पनपती इस माफिया संस्कृति के षड़यन्त्रों के कारण परीक्षा न दे पानेवाले विद्यार्थियों की खबरों से अखबार के पन्ने रंग रहते हैं। परीक्षा को अनिवार्य बुराई मानते हुए भी शिक्षाविद् इसका कोई विकल्प नहीं खोज पाये हैं। परीक्षार्थी बनने में ही विद्यार्थी को अपना मोक्ष नजर आ रहा है। परीक्षोपयोगी प्रश्नों के 'नोट्स' ही अध्ययनअध्यापन का काम्य हो उठे हैं। जो शिक्षक 'नोट्स' नहीं दे सकता वह पुराणपंथी (आउटडेटेड) मान लिया जाता है। ऊँची फीस लेनेवाले ट्यूशनी शिक्षक पूजनीय हैं। एक ही ढाँचे में ढ़ले उत्तर परीक्षक के लिए काफी सुविधाजनक होते हैं- एक जैसा माल, एक जैसी जाँच ! बिना फीस लिए पढ़ाने वाला शिक्षक मन्दबुद्धि, दयापात्र एवं त्याज्य होता है। फीस लिए बिना भला कहीं बुद्धि का द्वार खुलता है ? परीक्षा और अध्ययन-अध्यापन का यह मेल कितना शिक्षा - एक यशस्वी दशक विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, चरित्र एवं उनके मानसिक-आध्यात्मिक विकास को भी परिधि में समेटना है। आध्यात्मिक और नैतिक विकास से ही जीवन मूल्यों की रक्षा हो सकती है । अर्थकरी विद्या आजीविका से जोड़ती है, कर्मक्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित करने के अवसर देती है। आज की शिक्षा में परमार्थकरी रूप आँख की ओट - हो गया है, अर्थकरी उद्देश्य हावी हो गया है। संपूर्ण विश्व अर्थ और शक्ति की क्रीड़ा में आनंदमग्न है। हर क्षेत्र चाहे वह शिक्षा का ही क्यों न हो, 'पावर' और 'मनी' से जुड़ गया है। आजीविका से जुड़े पाठ्यक्रमों (जॉब ओरिएण्टेड कोर्सेज़) की धूम मची है। शिक्षा के परम्परागत विषय साहित्य, दर्शन, इतिहास एवं भाषाशास्त्र आदि बाजार की परिभाषा पर खोटे उतर रहे हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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