Book Title: Lok Madhyam Jan Shikshan aur Chunotiya
Author(s): Kiran Sipani
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ० किरण सिपानी तेजी से बदलता विश्व परिदृश्य एक ओर तो संभावनाओं के नित नये द्वार खोल रहा है और दूसरी ओर नये विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों के माध्यम से व्यावसायिक, तकनीकी, इंजीनियरी, कृषि एवं विज्ञान संबंधी नवीन पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की गयी है। खुले विद्यालयों के तहत मुख्यधारा से कटे एवं समस्याग्रस्त विद्यार्थियों को शिक्षा की सुविधाएँ दी जा रही हैं। नारी शिक्षा एवं प्रौढ़ शिक्षा से संबंधित उल्लेखनीय प्रयास किये गये हैं। विदेशों में अध्ययन के लिए छात्रवृत्तियाँ सुलभ हुई हैं। परन्तु इतने विकास के बावजूद शिक्षा सामाजिक, नैतिक, मानवीय एवं आध्यात्मिक सरोकारों से दूर होती जा रही है। विद्यार्थियों में अकेलापन, कुंठा, असुरक्षा एवं भय की भावनाएँ घर कर रही हैं। हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है और बुरी आदतें पनप रही हैं। जीवन अधिक बोझिल, अधिक उच्छृंखल और जटिल हो गया है। गुणवत्ता का स्थान • विस्तार ने ले लिया है। पूरा विश्व शिक्षा की समस्याओं और समाधानों में विचारमग्न है। सभी शिक्षाविदों की मान्यता है कि 'सा विद्या या विमुक्तये'विद्या व्यक्ति को सीमाओं से मुक्त करती है । विद्या की परमार्थक एवं अर्थकरी रूप उसके विभिन्न लक्ष्यों को स्पष्ट करते हैं। परमार्थकरी विद्या का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त कराना ही नहीं बल्कि विद्वत खण्ड / ३२ शिक्षा के प्रतिमान बदल गये हैं। पहले जहाँ श्रेष्ठता कसौटी थी, आज पैसे न आसन खिसका लिया है। प्रतिभासम्पन्न को अंगूठा दिखाते हुए कम अंक पाने वाला धनाढ्य विद्यार्थी उच्च शिक्षा के अवसरों को अपने लिए सुलभ बना लेता है और अब तो बाँहें फैलाकर आमंत्रण देते बाजारवाद ने सबको पीछे धकेल दिया है। क्रेडिट पर पढ़िए, प्रतिभा को बंधक रखिये, कैरियर बनाइये और उधार चुकाइये। मीठी आवाज में पुकार -पुकार कर अपने प्रलोभनों अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं में फाँसते नित नये इन्स्टीच्यूट गली-कूचों में उग रहे हैं। क्या मजाल कि आप सोने और पीतल में फर्क कर पायें। अच्छे से अच्छे, बड़े से बड़े स्कूल-कॉलेज में चेक बुक लेकर पीछे के दरवाजे से घुसने की सहूलियत हो गयी है। बड़े कदों के स्कूल-कॉलेज-इन्स्टीच्यूट में पढ़नेवालों की डिग्रियों की कीमत कई गुना बढ़ जाती है और विवाह - बाजार में डिमांड भी ऊँची हो जाती है। मान्यता प्राप्त विद्यालयों से सांठ-गांठ कर कई निजी (प्राइवेट) विद्यालय लाखों कमा रहे हैं। शिक्षा तंत्र में पनपती इस माफिया संस्कृति के षड़यन्त्रों के कारण परीक्षा न दे पानेवाले विद्यार्थियों की खबरों से अखबार के पन्ने रंग रहते हैं। परीक्षा को अनिवार्य बुराई मानते हुए भी शिक्षाविद् इसका कोई विकल्प नहीं खोज पाये हैं। परीक्षार्थी बनने में ही विद्यार्थी को अपना मोक्ष नजर आ रहा है। परीक्षोपयोगी प्रश्नों के 'नोट्स' ही अध्ययनअध्यापन का काम्य हो उठे हैं। जो शिक्षक 'नोट्स' नहीं दे सकता वह पुराणपंथी (आउटडेटेड) मान लिया जाता है। ऊँची फीस लेनेवाले ट्यूशनी शिक्षक पूजनीय हैं। एक ही ढाँचे में ढ़ले उत्तर परीक्षक के लिए काफी सुविधाजनक होते हैं- एक जैसा माल, एक जैसी जाँच ! बिना फीस लिए पढ़ाने वाला शिक्षक मन्दबुद्धि, दयापात्र एवं त्याज्य होता है। फीस लिए बिना भला कहीं बुद्धि का द्वार खुलता है ? परीक्षा और अध्ययन-अध्यापन का यह मेल कितना शिक्षा - एक यशस्वी दशक विद्यार्थियों के व्यक्तित्व, चरित्र एवं उनके मानसिक-आध्यात्मिक विकास को भी परिधि में समेटना है। आध्यात्मिक और नैतिक विकास से ही जीवन मूल्यों की रक्षा हो सकती है । अर्थकरी विद्या आजीविका से जोड़ती है, कर्मक्षेत्र में स्वयं को प्रमाणित करने के अवसर देती है। आज की शिक्षा में परमार्थकरी रूप आँख की ओट - हो गया है, अर्थकरी उद्देश्य हावी हो गया है। संपूर्ण विश्व अर्थ और शक्ति की क्रीड़ा में आनंदमग्न है। हर क्षेत्र चाहे वह शिक्षा का ही क्यों न हो, 'पावर' और 'मनी' से जुड़ गया है। आजीविका से जुड़े पाठ्यक्रमों (जॉब ओरिएण्टेड कोर्सेज़) की धूम मची है। शिक्षा के परम्परागत विषय साहित्य, दर्शन, इतिहास एवं भाषाशास्त्र आदि बाजार की परिभाषा पर खोटे उतर रहे हैं। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थपूर्ण होता है- इसी संदर्भ में बाबा तुलसीदास की पंक्तियाँ याद घरों-परिवारों में परीक्षा उन्माद का रूप धारण कर चुकी है। आ रही हैं : बच्चा और सारा परिवार एक तनाव की स्थिति में जीते हैं। त्योहारों "गुरु सिस अंध-बधिर का लेखा पर पहरे बैठा दिये जाते हैं। माँ-बाप, घर-दफ्तर के जरूरी कामों एक न सुनइ एक नहिं देखा।" को तिलांजलि दे परीक्षा-स्थलों पर योगासन की मुद्रा में बैठे-खड़े नोट्स जीरोक्स करवाने के चलन ने विद्यार्थियों का अपकार ही रहते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा भी तो गया है-"एकै साधै सब किया है। जीरोक्स के माध्यम से अपना समय बचाकर कुछ ही क्षणों सधै।' बाह्य परीक्षा के साथ आंतरिक मूल्यांकन (इन्टरनल में नोट्स की प्रतिलिपियाँ (कॉपीज़) - ज्ञान के पन्ने संचित कर एसेसमेन्ट) एवं वार्षिक परीक्षा के साथ सतत मूल्यांकन के प्रयोग विद्यार्थी बहुत प्रसन्न होते हैं। पहले अपने हाथ से उतारने के कारण भी शुरु किये गये हैं। आंतरिक मूल्यांकन के लिए स्कूलों में हर विद्यार्थियों को विषय-वस्तु की एक झलक मिल जाती थी। लिखते विषय में एक 'प्रोजेक्ट' बनाने का प्रावधान किया गया है। इन रहने के अभ्यास के कारण उनके लिखने की गति भी तीव्र हो जाती प्रोजेक्ट फाइलों के लिये सामग्री जटाने एवं तैयार करने में बच्चों .. थी। अक्षरों को सुडौल बनाने के अवसर भी उन्हें सहज सुलभ हो के साथ माँ-बाप भी जट जाते हैं और कभी-कभी तो विषय के जाते थे, वतना को अशुद्धिया भी कम होती थी। इधर वतना का प्रोफेशनल' को मोटी रकम देकर फाइलें तैयार करवायी जाती हैं। अशुद्धियों की बाढ़ आ गयी है, चाहे लिखनेवाला ऑनर्स का विद्यार्थी परिणामस्वरूप ऐसे प्रयास अपने उद्देश्यों तक पहुँचने में असमर्थ ही क्यों न हो। लिखने की गति धीमी होने के कारण अक्सर विद्यार्थी रहते हैं, विद्यार्थी यथार्थ ज्ञान (प्रैक्टिकल नॉलेज) को जीवन में उतार प्रश्नपत्र के सम्पूर्ण उत्तर नहीं लिख पाते। नहीं पाते। अनियमित परीक्षाएँ वर्ष-दर-वर्ष मनमाने परीक्षकों का चुनाव, शिक्षक की छवि मैली हुई है। कर्त्तव्य पर अधिकार हावी हो मनचाहे स्कूल-कॉलेजों की उत्तर-पुस्तिकाओं के प्रति पक्षपात आदि गया है। राजनीति और व्यक्तिगत बैर भाव से संचालित होनेवाले तरह-तरह के आरोपों से घिरी परीक्षा-प्रणाली आडम्बर बनकर रह । शिक्षक विद्यार्थियों के कल्याण को भूल कर अपनी गोटियाँ बैठाने गयी है। अधिकांश परीक्षा-कक्षों में विद्यार्थियों को उन्मुक्त साँस लेने, .. - में मशगुल रहते हैं। उनका व्यवहार विद्यार्थियों की मौलिकता और हाथ-पांव-गर्दन हिलाने एवं लघुशंका निवारण की बेलगाम लम्बी रचनात्मकता को कुंठित कर देता है। कुछ शिक्षक विद्यार्थियों से छूट सिद्ध करती है कि स्वतंत्रता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। दूरी बनाये रखना श्रेयस्कर समझते हैं। उनसे विद्यार्थी इतने आतंकित परीक्षा स्थलों में सरस्वती के प्रताप में इतनी वृद्धि होती है कि रहते हैं कि न्यायपूर्ण बात कहने में भी हकलाते हैं। जहाँ शौचालय तक विद्यामंदिरों में परिणत हो जाते हैं और चोर दरवाजे संवादहीनता होती है, वहाँ दूरियाँ बढ़ती हैं। सीधा-सच्चा-आत्मीय से प्रवेश कर लक्ष्मी भी विराजने लगती है। आलम यह है कि संवाद समस्याओं को सुलझाने में कारगर साबित होता है। नये किसी-किसी परीक्षा-कक्ष में परीक्षार्थियों की आँखों से बरसते तीरों वेतनमान के साथ शिक्षकों को अनेक नियमों में बाँध दिया गया है। को फौलादी सीने पर झेलता निरीक्षक रणभूमि में डटा रहता है। यह ठीक है कि एक मछली तालाब को गंदा करती है, परन्तु उसकी शहादत का आखिर क्या मोल है? जो डिग्रियों के रास्ते में शिक्षकों पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाना उनकी सृजनात्मकता आयेगा, वह चूर-चूर हो जायेगा! को बंदी बनाना है। मस्तिष्क की उर्वरता-ऊर्जा को प्रशासनिक एवं धीरे-धीरे सुस्ताता, कछुआ चाल से चलता परीक्षा तंत्र लम्बे अंतराल के पश्चात् परीक्षकों तक पहुँचता है। कुछ को इस दायित्व दफ्तरी कार्यों में खर्च करना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। से मुक्त होने की खूली छूट है तो कुछ पर अतिरिक्त बोझ लाद ___ पाठ्यक्रमों पर पुनर्विचार के तहत कहीं तो ताजी हवा को दिया जाता है। कभी परीक्षकों के निकम्मेपन के प्रशस्तिपत्र पढ़े जाते प्रवेश मिला है और कहीं नवीनता के बहाने अल्पज्ञतावश जरूरी हैं तो कभी आनन-फानन उनसे माँग की जाती है कि इतनी विषयों को भी बदल दिया गया है। एक ओर संस्कृत अध्ययनपुस्तिकाएँ इतने दिनों में जाँच कर दो--गोया परीक्षक हाड़-माँस का अध्यापन की दुर्गति है और दूसरी ओर ज्योतिष विद्या को पढ़ाने के पुतला न होकर मशीन हो। स्विच दबाया और नियत समय में फैक्ट्री नगाड़े बजाये जा रहे हैं, इतिहास के साथ खिलवाड़ किया जा रहा में इतना प्रोडक्शन तैयार! आजकल अधिकारीगणों की जागरूकता है। कभी जरूरी एवं नवीन पुस्तकों की खरीद के समय पुस्तकालयों के चर्चे हैं। परीक्षकों की जन्मकुंडलियाँ पढ़ी जा रही हैं और के लिए धन का रोना रोया जाता है और कभी सरकारी अनुदान के आचार-संहिताएँ घोषित की जा रही हैं। आशा की जानी चाहिये कि तहत पाठ्यक्रम की परिधि के बाहर अवांछित पुस्तकों की भीड़ के इस समुद्र-मंथन के बेहतर परिणाम होंगे। कारण पुस्तकालयों में उपयोगी पुस्तकों के लिए स्थान का अभाव शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है। उचित देख-रेख की कमी के कारण न तो शिक्षक और पड़ोस और समाज से काट कर। शुरु से ही उसे एक संकीर्ण घेरे न ही विद्यार्थी पुस्तकालयों का लाभ उठा पाते हैं। में कैद होने का अभ्यास डाल दिया जाता है। थोड़े बड़े होने पर आज़ादी के बाद शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या शिक्षा के बच्चे को होस्टल में भेज कर हम विशिष्ट बना देना चाहते हैं। माध्यम की है। माध्यम का प्रश्न जटिल से जटिलतर होता जा रहा। होस्टली या स्कूली शिक्षा के पश्चात् उच्चतर-शिक्षा के लिये विदेश है। भारतीय भाषाएँ अभिशप्त हैं। अंग्रेजी ने उनके अधिकार छीन यात्रा की योजनाओं में हम तन-मन-धन समर्पित करने के लिये लिये हैं। हिन्दी, मातृभाषा एवं क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की बातें ___ आकुल-व्याकुल रहते हैं। इस पूरी व्यवस्था में क्या महत्व है पिछड़ेपन की निशानी है। उनके माध्यम से चलने वाले विद्यालय या भावनात्मक परिवेश का! कितना सटीक कहा था प्रसाद ने :तो बंद होते जा रहे हैं अथवा अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें “किन्तु है बढ़ता गया मस्तिष्क ही निश्शेष, अंग्रेजी माध्यम की वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ी है। भारतीय छूट कर पीछे गया है रह हृदय का देश।" भाषाओं के माध्यम से शिक्षित हाशिये पर डाल दिये गये हैं। इन इस तंत्र में संस्कारों का कोई स्थान नहीं। इस खतरे को भाषाओं के विद्वानों का गंभीर चिंतन अपने ही देश में दो कौड़ी का महसुसते हुए बच्चों को संस्कारित करने के लिये संस्कार-शिविर साबित हो रहा है, उसका बाजार में कोई मूल्य नहीं। वे शिक्षक ही आयोजित किये जा रहे हैं। इनके महत् उद्देश्य में कोई संदेह नहीं विद्वान समझे जाते हैं जो पग-पग पर अंग्रेजी के उदाहरण देकर है, परन्तु वर्तमान परिवेश में ये मात्र घटना बन कर रह जाते हैं, अपनी धाक जमाते हैं। अंग्रेजी आधुनिकता और प्रतिष्ठा के साथ जीवन में उतर नहीं पाते। पारम्परिक उत्सव और त्योहार हमें जुड़ गयी है। अंग्रेजीदाँ ही नौकरियों के लिये चुने जाते हैं, देशज शिक्षित नहीं कर पा रहे हैं, महज कर्मकाण्ड बनकर रह गये हैं। चरित्रों की कोई कद्र नहीं। इस देशज पीड़ा को निदा फाजली ने दीपावली के ठीक बाद वाले दिन परीक्षा में बैठनेवाला विद्यार्थी क्या बखूबी व्यक्त किया है : तन-मन से त्योहार को जी पाता है? टी०वी० पर त्योहार मना कर "पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है, बच्चों को संस्कारित नहीं किया जा सकता। त्योहारों के अनुकूल अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।" परिवेश का निर्माण होना चाहिये। स्कूल-कॉलेजों की छुट्टियाँ हमारे देश के अतिरिक्त किसी भी स्वाधीन देश का बच्चा भारतीय जीवनशैली को दृष्टिगत रखकर तैयार की जानी चाहिये। विदेशी भाषा या अंग्रेजी भाषा से शिक्षारंभ नहीं करता। जापान जैसा देश के महत्वपूर्ण मुद्दों में शिक्षा को सम्मिलित नहीं किया उन्नत देश भी अपनी भाषा के माध्यम से चरम ऊँचाइयों का स्पर्श जाता। सकल राष्ट्रीय आय का बहुत छोटा सा प्रतिशत (छ: कर पाया है। हमारे देश के उच्चतम शिक्षण संस्थान अंग्रेजी माध्यम प्रतिशत) शिक्षा पर खर्च किया जाता है। अपने दायित्व से मुक्त से अपने विद्यार्थियों को विश्वोन्मुख बनाने में मगन हैं क्योंकि अंग्रेजी होकर सरकार निजी शिक्षण संस्थानों को प्रोत्साहन दे रही है। परन्तु के बिना विश्व की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे राष्ट्रीय परिवार की आय में बढ़ोतरी करनेवाले बच्चे को विद्यालय भेज नेताओं ने खुली सम्पूर्ण बहस से हमेशा बचने का प्रयास किया। वोट पाना एक दुष्कर कार्य है। यदि माँ-बाप भेज भी पाये तो छोटे से हिन्दी और प्रांतीय भाषाओं में माँगे और राज्य अंग्रेजी में किया। कमरे में ढूंसे गये पचास-साठ बच्चों को छ:-सात सौ के वेतन पर बुद्धिजीवियों का एक वर्ग अंग्रेजी के माध्यम से लोकतंत्र की लड़ाई नियुक्त शिक्षक/शिक्षिका के हवाले कर देना कितना अमानवीय है। लड़ना चाहता है। लोकतंत्र की लड़ाई लोकभाषा के बिना संभव नहीं भौतिक-शैक्षणिक-मानवीय साधनों के अभाव में ऐसी योजनाएँ है। वर्तमान शासन व्यवस्था की भाषा अंग्रेजी है और राष्ट्रभाषा हिन्दी दिवा-स्वप्न बन कर रह जाती हैं। ग्रामीण जीवन के प्रति गहरी इस व्यवस्था से बाहर है। इस व्यवस्था के टूटे बिना हिन्दी एवं कोई समझ के बिना शिक्षा के गन्तव्य को पाया नहीं जा सकता। सन् भी प्रादेशिक भाषा सिर उठाकर जी नहीं सकती। भारतीय भाषाओं २००१ को नारी सशक्तिकरण वर्ष की संज्ञा दी गयी। रिपोर्टों के से कटना अपने परिवेश से कटना है, सामाजिक रिश्तों की गरमाहट आधार पर ६ से १४ वर्ष के बच्चों के लिये अनिवार्य शिक्षा के का ठंडे होते जाना है। तहत ३८.५२ प्रतिशत लड़कियाँ ही पाँचवीं कक्षा से ऊपर शिक्षित स्वतंत्र भारत की स्वतन्त्र शिक्षा नीति विकसित नहीं हुई। वह हैं। इस प्रतिशत में कमी का कारण है- लड़कियों पर अतिरिक्त मैकाले के पदचिह्नों का अनुसरण करती हुई नौकरी तक सीमित काम का बोझ एवं समय की कमी। ग्रामीण अभिभावक भयभीत हैं। रही. जीवन से दूर होती गयी। दो-अढाई वर्ष का बच्चा नर्सरी और उनका दृढ़ विश्वास है कि स्कूली लड़कियों पर होनेवाले यौन हमलों केजी शिक्षा-व्यवस्था में भेज दिया जाता है - अपने घर, आस- के विरुद्ध सरकार की ओर से सशक्त कदम नहीं उठाये जाते। विद्वत खण्ड/३४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकगीत लोकगीत लोक की धरोहर हैं, किसी व्यक्ति की नहीं । ये केवल शब्दरचना ही नहीं लोक का पूरा शास्त्र लिए होते हैं। उनमें सामूहिक मंगलेच्छा निहित मिलती है। वे अपने मूल समूह की संरचना भी है। इनमें शब्द भी समूह का, स्वर भी समूह का, ताल, लय, छंद भी समूह का होता है। ये किसी भी समाज, सभ्यता, संस्कृति के दर्पण, रक्षक व पोषक होते हैं। लोक जीवन की सुखद भावनाओं ओर कमनीय कामनाओं के सहारे उन्हें वाणी का रूप मिलता है। एक प्रकार से लोक की गुंजन में कुछ निश्चित शब्दों का जमाव और उनके गायन से लोक का हर्षाव इन गीतों का महत्त्व परिभाषित करते हैं। लोकगीतों के कई रूप हैं। विभिन्न प्रान्तों में अनुष्ठान, बनभट, उनके प्रयोग गायन समय, गायक कलाकार और अन्य विशेषताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्गीकरण हुए हैं लेकिन मूलतः लोकगीत चार श्रेणी के माने जा सकते हैं१) संस्कार सम्बन्धी लोकगीत २) सामाजिक लोकगीत ३) धार्मिक लोकगीत ४) मनोविनोद के लोकगीत लोकगीतों की ही कोटि का एक भेद भजन, हरजस, प्रभाती, साख- सबद आदि भी हैं। इन लोकगीतों की प्रभावना और अति व्याप्ति जीवन के प्रत्येक छोर पर देखी जा सकती है। इसीलिए यह मान्यता चली आई है कि बिना गीत के कोई रीत नहीं होती है। भारत में जन्म से लेकर मृत्यु तक लोकगीतों की परम्पराबद्ध श्रृंखला को देखा जा सकता है। सरलता, समरसता, सरसता के साथ मधुरता और लयबद्धता लोकगीतों के वे गुण हैं जिनके कारण वे शीघ्र ही कंठस्थ हो जाते हैं। लोक जीवन में ये लोकशिक्षण के महत्त्वपूर्ण आधार बने हुए हैं। आधुनिक युग के चिंतकों और प्रचारकों ने भी लोकगीतों की शक्ति का लोहा माना है। आधुनिक माध्यमों की सर्वसाधारण की पहुंच के लिए भी लोकगीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। इस प्रकार भारत के पारम्परिक लोक माध्यम अपना स्वरूप और विस्तार बनाये हुए हैं। आधुनिकता की चमक में यद्यपि चकाचौंध होकर अपने स्वरूप को खोते जा रहे हैं तथापि इनकी अपनी समृद्ध परम्परा रही है और इसी परम्परा ने इन माध्यमों को कालजयी भी बना रखा है। 1 शिक्षा - एक यशस्वी दशक संचार लोक व्यवहार का आधार स्तम्भ है। किसी सोच, किसी संकल्प और किसी सृजन को औरों तक पहुंचाने या समष्टिगत करने के प्रयासों में संचार सेतु का कार्य करता है। प्राचीन काल में संचार को प्रथमत: 'नाद' नाम दिया गया और उसकी कल्पना श्रेष्ठ सत्ता या ईश्वरीय रूप में की गई। इसके पीछे धार्मिक भाव चाहे जो रहा हो किन्तु मूलतः विचारों की संप्रेषणीयता ही थी और उसे येन-केन-प्रकारेण एक मन या एक हाथ से अनेक मना या अनेक हस्ता करने का चिंतन मुख्य रहा। इसी दृष्टिकोण का परिचायक है लोकमाध्यमों के पीछे का सोच । शब्द, वाणी, लिपि और कला- उत्पाद से लेकर अभिनय या प्रदर्शन भी इसी के अंग रहे हैं। इस रूप में आंगिक, वाचिक और कालिक तथा लिखित एवं वस्तुगत सर्जित रूप संचार के मूल स्वरूप कहे जा सकते हैं। लोक माध्यमों में यही अवधारणा निहित मिलती है। लोक माध्यमों में चाहे लोक कथा हो, लोकनाट्य हो, लोकनृत्य हो, लोकगीत हो अथवा और कोई लोकशिल्प, वे कहीं न कहीं एक संकल्प और एक विचार को एक से अनेक तक प्रसारित करने का निहितार्थ लिए होते हैं। लोकमाध्यमों के लिए कहा जा सकता है कि वे सामाजिकता के विस्तार का पूरा वाङ्मय लिए होते हैं। इन माध्यमों ने न केवल परिवार और परिवार के बीच ही बल्कि समाज और समाज के बीच सम्बन्धों और संवादों का सिलसिला शुरू किया तथा विभिन्न चीजों, शिल्पों, विचारों, मान्यताओं और आज के सोच से मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित संचालित किया । एक प्रकार से पारस्परिक लोक माध्यम सर्जन से लेकर आलोड़न-बिलोड़न और चिंतन तक की अवधारणा अपने मूल में लिए होते हैं । इसीलिए इन्हें संचयी कहा जाता है क्योंकि ये माध्यम हजारों वर्षों के अनुभवों को अपने में संचित और समाहित किये अपने स्वरूप को सुविधानुसार विकसित एवं वर्धित करते रहे हैं। आज के विचारों ने इन्हें सांस्कृतिक धरोहर कह दिया और यही विचार एक हद तक इन्हें स्थगित और सीमित करने का हथकण्डा ही कहा जायेगा। यहां विचार यह भी है कि अति यांत्रिक युग में देहाती या लोक माध्यमों को भले ही जंगली, नामसझ या शताब्दियों पूर्व के सोच वाले लोगों के अनुरंजन के अलावा कुछ नहीं माना जाता है अथवा दिन-ब-दिन परिवर्तित होते परिवेश में विद्वत् खण्ड / ३९ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन माध्यमों को फैशन की तरह देख लेने की कल्पना बढ़ चली हो परन्तु ग्रामीण या पारम्परिक लोक माध्यम अपने मूल में नई परम्पराओं के जन्मदाता और नये माध्यमों के बीच भी रहे हैं। इस प्रकार देखा जाय तो आज पारम्परिक लोक माध्यम कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। यह भी सोचा जा सकता है कि कई माध्यम तो अर्थहीन या नकारा करार दिये गये हैं। इसी कारण जहां लोक कलाकारों का अभाव होता जा रहा है वहीं लोगों का अथवा पूरे समुदाय का भी रवैया दृष्टिकोण बदलता जा रहा है। - पारम्परिक लोकमाध्यम आज के दौर में जिन चुनौतियों से लोहा ले रहे हैं अथवा जिन चुनौतियों से हार मान रहे हैं, वे तीन विचारों पर निर्भर है १) बदलाव अ) तकनीक के स्तर पर ब) जीवन स्तर पर २) पलायन - अ) कलाकारों की पराङ्मुखता ब) दर्शक या श्रोता समुदाय का दिशा हीन होना ३) दिखावा क) आयोजन के नाम पर ब) सामुदायिक सोच के स्तर पर इस प्रकार देखा जाये तो आज पारम्परिक लोक माध्यम सीमित या स्थगित होते जा रहे हैं जबकि इनका विकास और कालक्रम बहुत लम्बा नजर आता है। यह जान पड़ता है कि ये माध्यम सैकड़ों और हजारों वर्षों के कालक्रम में जो अपना स्वरूप तय कर पाये, वह आधुनिक संचार क्रांति के आते ही विगत चार पांच दशकों में बौने और वामनाकार होते होते अंडाकार होते चले जा रहे हैं। यदि विस्तार से इनके समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर नजर डालें तो मुख्य चुनौतियां निम्न जान पड़ती हैंइलेक्ट्रॉनिक क्रांति बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध विद्युत क्रांति के बाद इलेक्ट्रॉनिक क्रांति का रहा और इस दौर में सर्वाधिक विकसित रूप संचार माध्यमों का सामने आया। इस दौर में जहां अति यांत्रिकता बढ़ी वहीं श्रव्य और दृश्य माध्यम भी नवीन रूप और और तड़कभड़क लेकर सामने आये। नब्बे के दशक में संचार माध्यमों का जो स्वरूप सामने आया विद्वत् खण्ड / ४० उसने नागरिकीय मानसिकता में यह सवाल खड़ा कर दिया कि कल कोई नई तकनीक आने वाली है। इसका आलम यह हुआ कि इन माध्यमों में भी विकसित, अति विकसित और नव विकसित माध्यमों की रेलमपेल रही और अब सद्य तकनीक अथवा लेटेस्ट टेक्नोलॉजी एक कहावत के रूप में सामने है। संचार माध्यमों में आज रेडियो और दूरदर्शन की बात क्या करें, उपग्रहीय संचार माध्यम सामने हैं और विश्व के किसी भी कोने में होने वाली घटना, दुर्घटना अथवा आयोजन को तत्काल अथवा साथ-साथ किसी अन्य कोने में देखा जा सकता है। फिल्मों में भी आज कई तकनीकें सामने हैं तथा सदियों पुराने जीवों को भी सजीव और साकार रूप में फिल्माये जाने की आधुनिककृत पद्धतियां सामने आई है जिनके मूल में कम्प्यूटर है। आज दूर संवेदी तकनीक भी संचार माध्यमों के साथ है। इसके विपरीत पारम्परिक संचार माध्यमों के साथ यह विकासक्रम नहीं देखा जा सकता। इसी कारण जमाने की हवा वाले किसी व्यक्ति के सामने यदि पारम्परिक या ठेठ देहात की बात की जाती है तो बेमानी लगाती है। यह भी एक युगीन सच है कि नवीकृत माध्यमों को अधुनातन करने की दशा में सरकारें और वैज्ञानिक कितना चिंतन और अर्थ नियोजन या अर्थ निवेशन कर रहे हैं उतना पारम्परिक माध्यमों के साथ देखना तो दूर, सोचना भी सम्भव नहीं है। जीवन शैली में नवीनता भारत की ही क्या बात करें, विश्व की ही जीवन शैली में एकदम बदलाव आया है न केवल पारिवारिक सम्पदाओं बल्कि सामाजिक रिश्तों पर भी इस बदलाव का असर देखा जा सकता है। आज की जीवन शैली नवीनता की अनुगामिनी है । परम्परा या पौराणिकता को वह छोड़ देना चाहती है। नवीनता की अनुशायिनी होने से जहां जीवन को अर्थ मिला है वहीं वह अपनी परम्परा से टूटे पत्ते की तरह कट गई है। आज के जीवन के पास पैसा है किन्तु समय नहीं है। वह लोकशिक्षण की बात भूल चुका है जबकि पारम्परिक माध्यम लोकशिक्षण के बहुआयाम लिए उपस्थित होते रहे हैं। बदलाव के इस दौर ने पारम्परिक माध्यमों पर न केवल आघात किया अपितु उनका सर्वदृष्टि दमन भी किया है। शिक्षा - एक यशस्वी दशक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतियोगितात्मक वातावरण परम्परा के नाम पर घूमर, गवरी, हमेलो, पणिहारी, चिरमी, आज हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है। गणगौर जैसे सांस्कृतिक नामों से आयोजन रखे जाते हैं पर व्यापार, व्यवसाय, उद्यम, चिकित्सा और संस्कारों तक में उनमें आधुनिकता अथवा भोंडापन ही देखने को मिलता है। नवीनता के साथ-साथ प्रतियोगितात्मक भावनाएं देखने को इसे भी एक फैशन परस्ती का रूप कहा जा सकता है कि मिल रही हैं। हर व्यक्ति पड़ोसी के मुकाबले अपने को लोकगीतों के साथ आधुनिक मानसिकता की मांग को अत्याधुनिक और अति यांत्रिकता से युक्त बताने के उपक्रम आवश्यक करार देते हुए बड़े स्तर पर छेड़छाड़ की जा रही में लगा है। ऐसे में पारम्परिक माध्यमों और उनके कलाकारों है। एक और जहां इसमें कलाकार की असीमित यशलिप्सा या संचालकों में प्रतिस्पर्धी मानसिकता का विकास नहीं हुआ का भाव है वहीं ओडियो-वीडियो निर्माताओं का विपणन है, फलतः वे एक भयंकर चुनौती से जूझ रहे हैं। और अर्थार्जन का दृष्टिकोण भी देखने को मिलता है। आज यजमानी प्रथा की समाप्ति हर चीज एक उत्पाद के रूप में देखी जाने लगी है। पारम्परिक लोक माध्यमों का विकास बहुत हद तक पारम्परिक कल्पनाएं और पारम्परिक माध्यम इस मानसिकता यजमानी प्रथा की देन रहा। लोक कलाकार अपने यजमानों से बुरी तरह चोट खाये हुए हैं। अथवा आश्रयदाताओं के गांव और घर तक जाते तथा अर्थपूक आयोजन एवं सरकारीकरण उनका अनुरजंन करते हुए लोक शिक्षण का प्रयास करते थे। वर्तमान दौर में हर आयोजन अर्थसाध्य हो गया है। बड़े आज उपभोक्ता संस्कृति का दौर है जिसने यजमानी प्रथा को आयोजनों का सरकारीकरण भी होता चला जा रहा है। सदियों पीछे छोड़ दिया है। इस बात को इस दोहे से भी सार्वजनिक हित के नाम पर लोक कलाकारों को तरजीह नहीं समझा जा सकता है - दी जाती और तथाकथित अभिजनों के संगठन, क्लब किसी वैश्या काते कातणो, भाट करे व्यौपार। फिल्म, एलबम के कलाकार के नाम पर सांस्कृतिक संध्या वांका मर गया रातिया अन वांका मरया दातार ।। एवं नाइट आयोजित करने की मानसिकता लिए बैठे हैं। इसी कारण लोक कलाकारों में भी अपनी कला के प्रति आज छोटे से लेकर बड़े शहर तक उन कलाकारों के विरक्ति जागी है। यह एक तरह से न केवल कलाकारों की आयोजन रखे जाने लगे हैं जो स्क्रीन पर नजर आते हैं। दो अपितु निखिल समुदाय की भी पलायनता को दर्शाता है। चार ठुमकों और मनलुभावने अर्धनग्न नृत्यों की प्रस्तुतियों साक्षरता का दौर के साथ-साथ भारी भरकम आर्केस्ट्रा के बीच लोक का समाज में कल तक जो निरक्षरता थी वह लोकोन्मुखी अपना साजोसामान बौना जान पड़ता है। एक प्रकार से लोक भाव से लोक माध्यमों को संरक्षण दे रही थी अथवा यह कहा की और लोकजीवन से जुड़े माध्यमों की आज भारी उपेक्षा जा सकता है कि अपने सहज भाव में वह कलाओं को होने लगी है। लोक कलाकारों को यदि किसी बड़े आयोजन आश्रय दे रही थी किन्तु साक्षरता ने जमाने की हवा का काम में बुलाया जाता है तो वे दया के पात्र से ज्यादा कुछ नजर किया है और उसने सहजता को असहजता का जामा पहना नहीं आते। शादी, जन्मदिन, नामकरण या विवाह-वर्षगांठ के दिया है। समाज में बेनकाबी बढ़ी और छोटी कलाओं को साथ ही सेवानिवृत्ति पर दी जाने वाली पार्टियों में लोक क्षुद्र करार देते हुए आधुनिकता की डगर पर अपने कदम कलाकारों को बुलाना भी एक फैशन हो गया है और वहां बढ़ाये हैं। भी ध्वनि विस्तारक यंत्रों, सीडी आदि माध्यमों के आगे वे फैशन परस्ती वामनाकार नजर आते हैं। पारम्परिक माध्यम फैशन परस्ती की मानसिकता से सरकार ने अपने स्तर पर जहां सांस्कृतिक केन्द्रों की जूझ रहे हैं। आज परम्परा को फैशन के रूप में देखा जाने स्थापना की वहीं संगीत नाटक अकादमियां, कलाकेन्द्र, लगा है। घरों की सजावट पारम्परिक उत्पादों से की जाने लोककला वीथियां भी स्थापित की। लोककला मेलों के लगी हैं।विद्यालयों, महाविद्यालयों और अन्य संस्कारों के आयोजन भी शुरू किये किन्तु इनमें भी लोकनृत्य माध्यमों की आयोजनों को पारम्परिक प्रवृत्तियों के नाम तो दिये जाते हैं उपेक्षा ही हुई क्योंकि कलाकार अपना समग्र जौहर नहीं दिखा लेकिन वहां बैठा कुछ देखने को नहीं मिलता जैसे कि आज सकते। वे संचालक अथवा संयोजक के सूत्र में लिपटे संकोची शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत् खण्ड/४१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व के धारक हो जाते हैं फिर एक विडम्बना यह भी लोककथा उपकरणों का निर्माण रुकना कल तक जो कलाकार अपने हाथों से पसंदीदा वाद्यों या पारम्परिक कला साधकों या कलापक्ष परिवारों की उपेक्षा कर कला सहयोगी सामान का निर्माण करते थे वे अपनी कला डुप्लीकेसी का खेल खेलते नजर आते हैं। को छोड़ चुके हैं। पुतलीकार, नट, भाट अपने माध्यम स्वयं लोक कलाकारों के प्रशिक्षण का अभाव नहीं बनाते बल्कि बने बनाये सामान से ही अपना काम कल तक बातपोशी, लोकगीतों का गायन, नर्तन, वादन, चलाकार यह कहते सुने जाते हैं कि हमने तो अपनी जिन्दगी कथा कथन जैसी कलाओं का प्रशिक्षण कलाकार अपने घर जी ली अब आने वाली पीढ़ी खुद अपनी चिंता करेगी पर ही कर लिया करते थे, आज वह परम्परा नहीं रही। नई क्योंकि आगन्तुक पीढ़ी कुछ नया कर दिखाना चाहती है। पीढ़ी अपनी परम्परा को हेय दृष्टि से देखने लगी। उसे नया सिंघी, सारंगी का निर्माण बन्द हो गया, मोरचंग का वादन कुछ करने की जुगत में एबीसीडी से कार्यारम्भ करना पड़ता और निर्माण थम सा गया है। नड़, अलगौंजे, चंग, तारपी, है। एक प्रकार से वे अपने पारम्परिक कर्म और धर्म से हीन पावरी, घोरयू, बांकिया, नरसिंगे केवल संग्रहालयों की शोभा होकर नवीन अनुशासन में अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं जो होकर रह गये। मशक और अरबी ताण के बाजे अब न केवल उन्हें महंगा पड़ता है बल्कि पारम्परिक कला समारोहों की शोभा नहीं बढ़ाते बल्कि विवाह वाद्यों में भी माध्यमों पर भी भारी पड़ रहा है। सिन्थेसाइजर बजाया जाने लगा है जो एक ही वाद्य कई वाद्यों पिछले कुछ समय से कुछ कला संस्थानों में लोक को पूर्ति कर देता है। बस्सी जैसे काष्ठ शिल्पियों के गांव में कावड़ों, मुखौटों, एक विडम्बना है कि ये कला प्रशिक्षण समयबद्ध होते हैं पुतलियों, गणगौरों, खांडों केवाणों का निर्माण नहीं होता। जबकि लोककलाकारों के लिए सतत प्रशिक्षण और सुधि- खांडों को बने हुए वर्षों हो गये। भरावों के शिल्प, गवारियों दर्शक समुदाय की आवश्यकता होती है। की कांगातिया आज लोक पसन्दगी से ही जाते रहे। यही __लोक कलाकारों को प्रशिक्षण वे लोग देने लगे है जो कारण है कि 'घाट से गड़ाई' महंगी होने लगी। पड़ों का कला रूपों को जानते ही नहीं हैं। आज बड़े शहरों में कई स्थान पड़क्यों ने ले लिया फिर मुद्रण कला ने भी पड़ पर संस्थाएं लोक कला प्रशिक्षण के नाम पर ग्रीष्मकाल आदि भारी प्रहार किया। एक प्रकार से मुद्रण ने जहां दुर्लभ चीजों अवकाश के समय शिविर आयोजित करते हैं किन्तु उनका को सरेआम लाकर रख दिया वहीं कलाकारों की उत्पादन परिणाम एक-दो नृत्य तक ही सीमित होकर रह जाता है। क्षमता ओर उदरपूर्ति के माध्यम पर भी भारी चोट की है। अन्य कई माध्यम हैं जिनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पारम्परिक है यथा पड़गायन, कावड़ वाचन, कथा कथन अथवा लोकमाध्यम जो कभी अपने अंचल में अपनी परम्परा की बातपोशी, कथा गायन, लोकचित्रायण का अंकन आदि साख भरते थे, वे अपनी पहचान ही खोते जा रहे हैं क्योंकि विधाओं के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं होते क्योंकि ये बेहद उनके सामने चुनौती, चुनौती न होकर सुरसा की तरह दिन श्रम और समय साध्य कला माध्यम रहे हैं। दुगुना रात चौगुना बढ़ने वाला संकटाकार रूप लिए मुंह बायें इसी प्रकार लोकवाद्यों के वादन के प्रशिक्षण शिविर भी खड़ा है। ऐसे में यदि पारम्परिक माध्यमों को बचाने के नहीं लगाये जाते। खड़ताल, रावणहत्था, सिंधी, सारंगी, हनुमत् प्रयास नहीं हुए तो केवल चुनौतियां ही नजर आयेंगी अपंग, गिरगिड़ी, भूगल, डोंसका, मोरचंग, नड़, घोरयू आदि और लोकमाध्यमों की केवल बातें ही रह जायेंगी। वाद्यों का वादन तो लुप्त ही होता चला गया। माठ वादन की बातें तो देखते ही देखते खत्म हो गई हैं। शादी समारोहों में गये हैं। विद्वत् खण्ड/४२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक