Book Title: Lok Madhyam Jan Shikshan aur Chunotiya Author(s): Kiran Sipani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf View full book textPage 7
________________ व्यक्तित्व के धारक हो जाते हैं फिर एक विडम्बना यह भी लोककथा उपकरणों का निर्माण रुकना कल तक जो कलाकार अपने हाथों से पसंदीदा वाद्यों या पारम्परिक कला साधकों या कलापक्ष परिवारों की उपेक्षा कर कला सहयोगी सामान का निर्माण करते थे वे अपनी कला डुप्लीकेसी का खेल खेलते नजर आते हैं। को छोड़ चुके हैं। पुतलीकार, नट, भाट अपने माध्यम स्वयं लोक कलाकारों के प्रशिक्षण का अभाव नहीं बनाते बल्कि बने बनाये सामान से ही अपना काम कल तक बातपोशी, लोकगीतों का गायन, नर्तन, वादन, चलाकार यह कहते सुने जाते हैं कि हमने तो अपनी जिन्दगी कथा कथन जैसी कलाओं का प्रशिक्षण कलाकार अपने घर जी ली अब आने वाली पीढ़ी खुद अपनी चिंता करेगी पर ही कर लिया करते थे, आज वह परम्परा नहीं रही। नई क्योंकि आगन्तुक पीढ़ी कुछ नया कर दिखाना चाहती है। पीढ़ी अपनी परम्परा को हेय दृष्टि से देखने लगी। उसे नया सिंघी, सारंगी का निर्माण बन्द हो गया, मोरचंग का वादन कुछ करने की जुगत में एबीसीडी से कार्यारम्भ करना पड़ता और निर्माण थम सा गया है। नड़, अलगौंजे, चंग, तारपी, है। एक प्रकार से वे अपने पारम्परिक कर्म और धर्म से हीन पावरी, घोरयू, बांकिया, नरसिंगे केवल संग्रहालयों की शोभा होकर नवीन अनुशासन में अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं जो होकर रह गये। मशक और अरबी ताण के बाजे अब न केवल उन्हें महंगा पड़ता है बल्कि पारम्परिक कला समारोहों की शोभा नहीं बढ़ाते बल्कि विवाह वाद्यों में भी माध्यमों पर भी भारी पड़ रहा है। सिन्थेसाइजर बजाया जाने लगा है जो एक ही वाद्य कई वाद्यों पिछले कुछ समय से कुछ कला संस्थानों में लोक को पूर्ति कर देता है। बस्सी जैसे काष्ठ शिल्पियों के गांव में कावड़ों, मुखौटों, एक विडम्बना है कि ये कला प्रशिक्षण समयबद्ध होते हैं पुतलियों, गणगौरों, खांडों केवाणों का निर्माण नहीं होता। जबकि लोककलाकारों के लिए सतत प्रशिक्षण और सुधि- खांडों को बने हुए वर्षों हो गये। भरावों के शिल्प, गवारियों दर्शक समुदाय की आवश्यकता होती है। की कांगातिया आज लोक पसन्दगी से ही जाते रहे। यही __लोक कलाकारों को प्रशिक्षण वे लोग देने लगे है जो कारण है कि 'घाट से गड़ाई' महंगी होने लगी। पड़ों का कला रूपों को जानते ही नहीं हैं। आज बड़े शहरों में कई स्थान पड़क्यों ने ले लिया फिर मुद्रण कला ने भी पड़ पर संस्थाएं लोक कला प्रशिक्षण के नाम पर ग्रीष्मकाल आदि भारी प्रहार किया। एक प्रकार से मुद्रण ने जहां दुर्लभ चीजों अवकाश के समय शिविर आयोजित करते हैं किन्तु उनका को सरेआम लाकर रख दिया वहीं कलाकारों की उत्पादन परिणाम एक-दो नृत्य तक ही सीमित होकर रह जाता है। क्षमता ओर उदरपूर्ति के माध्यम पर भी भारी चोट की है। अन्य कई माध्यम हैं जिनके प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पारम्परिक है यथा पड़गायन, कावड़ वाचन, कथा कथन अथवा लोकमाध्यम जो कभी अपने अंचल में अपनी परम्परा की बातपोशी, कथा गायन, लोकचित्रायण का अंकन आदि साख भरते थे, वे अपनी पहचान ही खोते जा रहे हैं क्योंकि विधाओं के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं होते क्योंकि ये बेहद उनके सामने चुनौती, चुनौती न होकर सुरसा की तरह दिन श्रम और समय साध्य कला माध्यम रहे हैं। दुगुना रात चौगुना बढ़ने वाला संकटाकार रूप लिए मुंह बायें इसी प्रकार लोकवाद्यों के वादन के प्रशिक्षण शिविर भी खड़ा है। ऐसे में यदि पारम्परिक माध्यमों को बचाने के नहीं लगाये जाते। खड़ताल, रावणहत्था, सिंधी, सारंगी, हनुमत् प्रयास नहीं हुए तो केवल चुनौतियां ही नजर आयेंगी अपंग, गिरगिड़ी, भूगल, डोंसका, मोरचंग, नड़, घोरयू आदि और लोकमाध्यमों की केवल बातें ही रह जायेंगी। वाद्यों का वादन तो लुप्त ही होता चला गया। माठ वादन की बातें तो देखते ही देखते खत्म हो गई हैं। शादी समारोहों में गये हैं। विद्वत् खण्ड/४२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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