Book Title: Lok Madhyam Jan Shikshan aur Chunotiya Author(s): Kiran Sipani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf View full book textPage 2
________________ अर्थपूर्ण होता है- इसी संदर्भ में बाबा तुलसीदास की पंक्तियाँ याद घरों-परिवारों में परीक्षा उन्माद का रूप धारण कर चुकी है। आ रही हैं : बच्चा और सारा परिवार एक तनाव की स्थिति में जीते हैं। त्योहारों "गुरु सिस अंध-बधिर का लेखा पर पहरे बैठा दिये जाते हैं। माँ-बाप, घर-दफ्तर के जरूरी कामों एक न सुनइ एक नहिं देखा।" को तिलांजलि दे परीक्षा-स्थलों पर योगासन की मुद्रा में बैठे-खड़े नोट्स जीरोक्स करवाने के चलन ने विद्यार्थियों का अपकार ही रहते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा भी तो गया है-"एकै साधै सब किया है। जीरोक्स के माध्यम से अपना समय बचाकर कुछ ही क्षणों सधै।' बाह्य परीक्षा के साथ आंतरिक मूल्यांकन (इन्टरनल में नोट्स की प्रतिलिपियाँ (कॉपीज़) - ज्ञान के पन्ने संचित कर एसेसमेन्ट) एवं वार्षिक परीक्षा के साथ सतत मूल्यांकन के प्रयोग विद्यार्थी बहुत प्रसन्न होते हैं। पहले अपने हाथ से उतारने के कारण भी शुरु किये गये हैं। आंतरिक मूल्यांकन के लिए स्कूलों में हर विद्यार्थियों को विषय-वस्तु की एक झलक मिल जाती थी। लिखते विषय में एक 'प्रोजेक्ट' बनाने का प्रावधान किया गया है। इन रहने के अभ्यास के कारण उनके लिखने की गति भी तीव्र हो जाती प्रोजेक्ट फाइलों के लिये सामग्री जटाने एवं तैयार करने में बच्चों .. थी। अक्षरों को सुडौल बनाने के अवसर भी उन्हें सहज सुलभ हो के साथ माँ-बाप भी जट जाते हैं और कभी-कभी तो विषय के जाते थे, वतना को अशुद्धिया भी कम होती थी। इधर वतना का प्रोफेशनल' को मोटी रकम देकर फाइलें तैयार करवायी जाती हैं। अशुद्धियों की बाढ़ आ गयी है, चाहे लिखनेवाला ऑनर्स का विद्यार्थी परिणामस्वरूप ऐसे प्रयास अपने उद्देश्यों तक पहुँचने में असमर्थ ही क्यों न हो। लिखने की गति धीमी होने के कारण अक्सर विद्यार्थी रहते हैं, विद्यार्थी यथार्थ ज्ञान (प्रैक्टिकल नॉलेज) को जीवन में उतार प्रश्नपत्र के सम्पूर्ण उत्तर नहीं लिख पाते। नहीं पाते। अनियमित परीक्षाएँ वर्ष-दर-वर्ष मनमाने परीक्षकों का चुनाव, शिक्षक की छवि मैली हुई है। कर्त्तव्य पर अधिकार हावी हो मनचाहे स्कूल-कॉलेजों की उत्तर-पुस्तिकाओं के प्रति पक्षपात आदि गया है। राजनीति और व्यक्तिगत बैर भाव से संचालित होनेवाले तरह-तरह के आरोपों से घिरी परीक्षा-प्रणाली आडम्बर बनकर रह । शिक्षक विद्यार्थियों के कल्याण को भूल कर अपनी गोटियाँ बैठाने गयी है। अधिकांश परीक्षा-कक्षों में विद्यार्थियों को उन्मुक्त साँस लेने, .. - में मशगुल रहते हैं। उनका व्यवहार विद्यार्थियों की मौलिकता और हाथ-पांव-गर्दन हिलाने एवं लघुशंका निवारण की बेलगाम लम्बी रचनात्मकता को कुंठित कर देता है। कुछ शिक्षक विद्यार्थियों से छूट सिद्ध करती है कि स्वतंत्रता उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। दूरी बनाये रखना श्रेयस्कर समझते हैं। उनसे विद्यार्थी इतने आतंकित परीक्षा स्थलों में सरस्वती के प्रताप में इतनी वृद्धि होती है कि रहते हैं कि न्यायपूर्ण बात कहने में भी हकलाते हैं। जहाँ शौचालय तक विद्यामंदिरों में परिणत हो जाते हैं और चोर दरवाजे संवादहीनता होती है, वहाँ दूरियाँ बढ़ती हैं। सीधा-सच्चा-आत्मीय से प्रवेश कर लक्ष्मी भी विराजने लगती है। आलम यह है कि संवाद समस्याओं को सुलझाने में कारगर साबित होता है। नये किसी-किसी परीक्षा-कक्ष में परीक्षार्थियों की आँखों से बरसते तीरों वेतनमान के साथ शिक्षकों को अनेक नियमों में बाँध दिया गया है। को फौलादी सीने पर झेलता निरीक्षक रणभूमि में डटा रहता है। यह ठीक है कि एक मछली तालाब को गंदा करती है, परन्तु उसकी शहादत का आखिर क्या मोल है? जो डिग्रियों के रास्ते में शिक्षकों पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाना उनकी सृजनात्मकता आयेगा, वह चूर-चूर हो जायेगा! को बंदी बनाना है। मस्तिष्क की उर्वरता-ऊर्जा को प्रशासनिक एवं धीरे-धीरे सुस्ताता, कछुआ चाल से चलता परीक्षा तंत्र लम्बे अंतराल के पश्चात् परीक्षकों तक पहुँचता है। कुछ को इस दायित्व दफ्तरी कार्यों में खर्च करना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। से मुक्त होने की खूली छूट है तो कुछ पर अतिरिक्त बोझ लाद ___ पाठ्यक्रमों पर पुनर्विचार के तहत कहीं तो ताजी हवा को दिया जाता है। कभी परीक्षकों के निकम्मेपन के प्रशस्तिपत्र पढ़े जाते प्रवेश मिला है और कहीं नवीनता के बहाने अल्पज्ञतावश जरूरी हैं तो कभी आनन-फानन उनसे माँग की जाती है कि इतनी विषयों को भी बदल दिया गया है। एक ओर संस्कृत अध्ययनपुस्तिकाएँ इतने दिनों में जाँच कर दो--गोया परीक्षक हाड़-माँस का अध्यापन की दुर्गति है और दूसरी ओर ज्योतिष विद्या को पढ़ाने के पुतला न होकर मशीन हो। स्विच दबाया और नियत समय में फैक्ट्री नगाड़े बजाये जा रहे हैं, इतिहास के साथ खिलवाड़ किया जा रहा में इतना प्रोडक्शन तैयार! आजकल अधिकारीगणों की जागरूकता है। कभी जरूरी एवं नवीन पुस्तकों की खरीद के समय पुस्तकालयों के चर्चे हैं। परीक्षकों की जन्मकुंडलियाँ पढ़ी जा रही हैं और के लिए धन का रोना रोया जाता है और कभी सरकारी अनुदान के आचार-संहिताएँ घोषित की जा रही हैं। आशा की जानी चाहिये कि तहत पाठ्यक्रम की परिधि के बाहर अवांछित पुस्तकों की भीड़ के इस समुद्र-मंथन के बेहतर परिणाम होंगे। कारण पुस्तकालयों में उपयोगी पुस्तकों के लिए स्थान का अभाव शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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