Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 336
________________ शत्रुञ्जयावताराख्यं रैदण्डकलशांकितम्। द्रम्माष्टादशलक्षाभिर्मण्डपान्तरचीकरत्॥४१॥ युग्मम् विभ्रन्मण्डपमुद्दण्डं कोटाकोटीति विश्रुतम्। द्वासप्तति च रैदण्डकुम्भान्भाराष्टकात्मकान्॥४२॥ शत्रुञ्जये श्रीशान्त्यर्हच्चैत्यमत्यक्षिशैत्यदम्। ओंकारे चैकमुत्कृष्टतोरणाङ्कमरीरचत्॥४३॥ युग्मम् भारतीपत्तने तारापुरे दर्भावतीपुरे। सोमेशपत्तने वाङ्किमान्धातृपुरधारयोः॥४४॥ नागदे नागपूरे नासिक्यवटपद्रयोः। सोपारके रत्नपुरे कोरण्टे करहेटके // 45 // चन्द्रावती-चित्रकूट-चारुपैन्द्रीषु चिक्खिले। विहारे बामनस्थल्यां ज्यापुरोजयिनीपुरोः॥ 46 // जालन्धरे सेतुबन्धे देशे च पशुसागरे। प्रतिष्ठाने वर्धमानपुरे-पर्णविहारयोः॥ 47 // हस्तिनापुर-देपालपुर गोगपुरेषु च। जयसिंहपुरे निम्बस्थूराद्रौ तदधो भुवि॥४८॥ सलखंणपुरे जीर्णदुर्गे च धवलक्कके। मकुड्यां विक्रमपुरे दुर्गे मंगलतः पुरे॥४९॥ इत्याद्यनेकस्थानेषु रैदण्डकलशान्विताः। चतुरङ्काधिकाशीतिः प्रासादास्तेनकारिताः॥५०॥ . सप्तभिः कुलकम्। सोमतिलकसूरि रचित प्रस्तुत स्तोत्र के प्रारंभिक 5 पद्यों में पेथड़ के सौजन्यादि गुणों का वर्णन करते हुए लिखा है: साधु पृथ्वीधर (पेथड़) विधिपूर्वक दीनों को दान देता था। नृपति जयसिंह के द्वारा सम्मानित हुआ था। अरहंत और गुरुचरणों की भक्ति में तल्लीन रहता था। शीलादि श्रेष्ठ आचरणों द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र करते हुए मिथ्या-बुद्धि और क्रोधादि शत्रुओं का नाश करता था। इसने अनेकों विशाल पौषधशालाओं का निर्माण कराया था। मन्त्रगर्भित स्तोत्र के पठन से शिवलिंग को विदीर्ण कर प्रकटित पार्श्वनाथ प्रतिमा जो विद्युन्माली देव द्वारा निर्मित और पूजित थी तथा अतिशय युक्त थी, की पूजन करता था। ___ वह जिनमूर्ति की त्रिकाल पूजन करता था। प्रतिदिन दोनों समय प्रतिक्रमण करता था। स्वधर्मी मात्र की महती भक्ति करता था। श्रेष्ठ पर्वो में स्वयं पौषध करता था और पर्यों में पौषध करने वाले साधर्मिकों की वैयावृत्य (सेवा) करता था तथा प्रमुदित हृदय से स्वधर्मीवात्सल्य करता था। लेख संग्रह 325

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