Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 364
________________ से संघ विशाल रूप में आने लगा। सं० 1475 में शुभमुहूर्त के समय सागरचन्द्रसूरि ने कीर्तिसागर मुनि को सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया। नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से पट्टाभिषेक उत्सव मनाया। नाना प्रकार के वाजिब बजाये गए और याचकों को मनोवांछित दान देकर सन्तुष्ट किया गया। उपा० क्षमाकल्याण जी की पट्टावली में आपका जन्म सं० 1449 चैत्र शुक्ला' षष्ठी को आ नक्षत्र में लिखते हुए भणशाली गोत्र आदि सात भकार अक्षरों को मिलाकर सं० 1475 माघ सुदि पूर्णिमा बुधवार को भणशाली नाल्हाशाह कारित नंदि महोत्सवपूर्वक स्थापित किया। इसमें सवा लाख रुपये व्यय हुए थे। वे सात भकार ये हैं-१. भाणसोल नगर, 2. भाणसालिक गोत्र, 3. भादो नाम, 4. भरणी नक्षत्र, 5. भद्राकरण, 6. भट्टारक पद और जिनभद्रसूरि नाम। आपने जैसलमेर, देवगिरि, नागोर, पाटण, माण्डवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि स्थानों पर हजारों प्राचीन और नवीन ग्रंथ लिखवा कर भंडारों में सुरक्षित किये, जिनके लिए केवल जैन समाज ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण साहित्य संसार आपका चिर कृतज्ञ है। आपने आबू, गिरनार और जैसलमेर के मन्दिरों में विशाल संख्या में जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी, उनमें से सैकड़ों अब भी विद्यमान हैं। ____ श्री भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नाचार्य को आपने ही आचार्य पद से अलंकृत किया था। सं० 1514 मार्गशीर्ष वदि 9 के दिन कुंभलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ। . - आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जी उच्चकोटि के विद्वान् और प्रतिष्ठित हो गए हैं। उन्होंने अपने 40 वर्ष के आचार्यत्व, युगप्रधानत्व काल में अनेक धर्मकार्य करवाये। विविध देशों में विचरण कर धर्मोन्नति का विशेष प्रयत्न किया। जैसलमेर के संभवनाथ जिनालय की प्रशस्ति में आपके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गई है। आपके द्वारा अनेक स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित करने का विवरण ऊपर लिखा जा चुका है। राउल श्री वैरिसिंह और त्र्यंबकदास जैसे नृपति आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे। सं० 1494 में इस मन्दिर का निर्माण चौपड़ा गोत्रीय सा० हेमराज-पूना-दीहा-पाँचा के पुत्र शिवराज, महीराज लोला और लाखण ने करवाया था। राउल वैरिसिंह ने इन चारों भ्राताओं को अपने भाई की तरह मानकर वस्त्रालंकार से सम्मानित किया था। सं० 1497 में सूरि जी के कर-कमलों से प्रतिष्ठा अंजनशलाका कराई। इस अवसर पर 300 जिन बिम्ब, ध्वज-दण्ड शिखरादि की प्रतिष्ठा हुई। इस 35 पंक्तियों वाली प्रशस्ति का निर्माण जयसागरोपाध्याय के शिष्य सोमकुंजर ने किया और पं० भानुप्रभ ने आलेखित किया था। इस प्रशस्ति की १०वीं पंक्ति में लिखा है कि आबू पर्वत पर श्री वर्धमानसूरि जी के वचनों से विमल मंत्री ने जिनालय का निर्माण करवाया था। श्री जिनभद्रसूरि जी ने उज्जयन्त, चित्तौड़, मांडवगढ़, जाउर में उपदेश देकर जिनालय निर्माण कराये व उपर्युक्त नाना स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित कराये, यह कार्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। इस मन्दिर के तलघर में ही विश्व विश्रुत श्री जिनभद्रसरि ज्ञानभण्डार है, जिसमें प्राचीनतम ताड़पत्रीय 400 प्रतियाँ हैं। खंभात का भंडार धरणाक ने तैयार कराया था। मांडवगढ़ के सोनिगिरा श्रीमाल मंत्री मंडन और धनदराज आपके परमभक्त विद्वान् श्रावक थे। इन्होंने भी एक विशाल सिद्धान्त कोश लिखवाया था जो आज विद्यमान नहीं है, पर पाटण भंडार की भगवतीसूत्र की प्रशस्ति युक्त प्रति मांडवगढ़ के भंडार की है। आपकी "जिनसत्तरी प्रकरण'' नामक 210 गाथाओं की प्राकृत रचना प्राप्त है। सं० 1484 में जयसागरोपाध्याय ने नगर कोट (कांगडा) की लेख संग्रह 353

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