Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 363
________________ युगनायक आचार्यप्रवर श्रीजिनभद्रसूरि रचित द्वादशाङ्गी पदप्रमाण-कुलकम् "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथन्ति गणहरा" केवलज्ञान प्राप्त करने और त्रिपदी कथन के पश्चात् तीर्थनायकों ने जो प्रवचन/उपदेश दिया, उसमें अर्थरूप में जिनेश्वरदेवों ने कहा और सूत्ररूप में गणधरों ने गुम्फित किया। उसी को द्वादशांगी श्रुत के नाम से जाना जाता है। द्वादशांगी श्रुत का पदप्रमाण कितना है इसके सम्बन्ध में निम्न कुलक हैं। ___ इसके कर्ता जिनभद्रसूरि हैं। जिनभद्रसूरि दो हुए हैं- प्रथम तो युगप्रधान जिनदत्तसूरि के शिष्य और दूसरे जैसलमेर ज्ञान भण्डार संस्थापक श्री जिनभद्रसूरि हैं। इन दोनों में से अनुमानतः ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे ही जिनभद्रसूरि की यह रचना हो। श्रुतसंरक्षण और श्रुतसंवर्द्धन यह उनके जीवन का ध्येय था इसीलिए उन्हीं की कृति मानना उपयुक्त है। आचार्य श्री जिनभद्रसूरि आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरि जी के पद पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० 1475 में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया। श्री जिनवर्द्धनसूरि जी के सम्बन्ध में पिप्पलक शाखा के इतिहास में लिखा जायेगा। जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है। जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था। उनकी शीलादि विभूषिता सती स्त्री का नाम खेतलदेवी था। इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया, वे असाधारण रूपगुण सम्पन्न थे। एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे। रामणकुमार के हृदय में आचार्यजी के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपनी मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी। माता ने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये-मिन्नत की, पर वह व्यर्थ हुई। अन्त में स्वेच्छानुसार आज्ञा प्राप्त की और समारोहपूर्वक दीक्षा की तैयारियाँ हुईं। शुभमुहूर्त में जिनराजसूरि जी ने रामणकुमार को दीक्षा देकर कीर्तिसागर नाम रखा। सूरि जी ने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए उन्हें वा० शीलचन्द्र गुरु को सौंपा। उनके पास इन्होंने विद्याध्ययन किया। चन्द्रगच्छ-शृंगार आचार्य सागरचन्द्रसूरि ने गच्छाधिपति श्री जिनराजसूरि जी के पट्ट पर कीर्तिसागर जी को बैठाना तय किया। भाणसउलीपुर में साहुकार नाल्हिग रहते थे जिनके पिता का नाम महुड़ा और माता का नाम आंबणि था। लीला देवी के पति नाल्हिगसाह ने सर्वत्र कुंकुमपत्रिका भेजी-। बाहर. 352 लेख संग्रह

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