Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 340
________________ . सुकृतसागर और उपदेशतरंगिणीकार श्री रत्नमण्डनगणि जो कि श्री रत्नशेखरसूरि के शिष्य हैं और जिनका कार्यकाल १६वीं शती का पूर्वार्द्ध है, के और पेथड़ के मध्य में कम से कम भी 160 वर्षों का अन्तर है। अतः यह निश्चत है कि रत्नमण्डनगणि ने परम्परागत जनश्रुति के अनुसार 84 मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख किया है। पूर्ण ज्ञातव्य प्राप्त न होने के कारण ही संभवतः मूलनायकों के नाम तथा समस्त स्थानों के नाम भी प्रदान नहीं कर सका है। अतएव रत्नमण्डनगणि का 84 जिन मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। पूज्य श्री सोमतिलकसूरिकृत पृथ्वीसाधुकारित-चैत्यस्तोत्रम्: श्रीपृथ्वीधरसाधुना सुविधिना दीनादिषूद्दनिना, भक्त श्रीजयसिंहभूमिपतिना स्वौचित्यसत्यापिना। अर्हद्भक्तिपुषा गुरुक्रमजुषा मिथ्यामनीषामुषा, सच्छीलादिपवित्रितात्मजनुषा प्रायः प्रणश्यद्रुषा॥१॥ नैकाः पौषधशालिकाः सुविपुला निर्मापयित्रा सता, मन्त्रस्तोत्रविदीर्णलित विवृतश्रीपार्श्वङ्ग पूजायूजा। विद्युन्मालिसुपर्वनिर्मितलसद्देवाधिदेवाह्वय, ख्यातज्ञाततनूरुहप्रतिकृतिस्फूर्जत्सपर्यासृजा॥ 2 // त्रिकाले जिनराजपूजनविधिं नित्यं द्विरावश्यकं, साधौ धार्मिकमात्रकेऽपि महतीं भक्तिं विरक्तिं भवे। 'तन्वानेन सुपर्वपौषधवता साधर्मिकाणां सदा, वैयावृत्यविधायिना विदधता वात्सल्यमुच्चैर्मुदा॥ 3 // श्रीमत्सम्प्रतिपार्थिवस्य चरितं श्रीमत्कुमारक्षमापालस्याप्यथ वस्तुपालसचिवाधीशस्य पुण्याम्बुधेः। स्मारं स्मारमुदारसम्मदसुधासिन्धूर्मिषून्मज्जता, श्रेयः काननसेचनस्फुरदुप्रावृड् भवाम्भोमुचा॥ 4 // सम्यग्न्यायसमर्जितोर्जितधनैः सुस्थानसंस्थापितैयें ये यत्र गिरौ तथा पुरवरे ग्रामेऽथवा यत्र ये। प्रासादा नयनप्रसादजनका निर्मापिताः शर्मदास्तेषु श्रीजिननायकानभिधया सार्द्धस्तुवे श्रद्धया॥५॥ पञ्चभिः कुलकम् श्रीमद्विक्रमतस्त्रयोदशशतेष्वब्देष्वतीतेष्वथो, विंशत्याञ्यधिकेषु ( 1320) मण्डपगिरौ शत्रुञ्जयभ्रातरि। श्रीमानादिजिनः 1, शिवाङ्गजजिनः 2. श्रीउज्जयतायिते, निम्बस्थूरनगेऽथ तत्तलभुवि श्रीपार्श्वनाथः श्रिये 3 // 6 // जीयादुजयिनीपुरे फणिशिरः 4, श्रीवैक्रमाख्ये पुरे, श्रीमान्नेमिजिनौ 5, जिनौ मुकुटिकापुर्यां च पार्थादिमौ 6-7 / लेख संग्रह 329

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