Book Title: Lekh Sangraha Part 01
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Rander Road Jain Sangh

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Page 358
________________ श्री विवेकचन्द्रगणि कृतम् भक्तामरस्तोत्र-पादपूर्ति आदिनाथ-स्तोत्रम् यह कृति विजयदानसूरि के शिष्य सकलचन्द्रगणि के शिष्य सूरचन्द्र के शिष्य श्री भानुचन्द्रगणि के शिष्य श्री विवेकचन्द्रगणि कृत है। जहाँ इन्होंने विजयदानसूरि, विजयहीरसूरि और विजयसेनसूरि तीन पीढ़ियों को देखा है और सेवा की है। आचार्य हीरविजयसूरिजी का अकबर पर अप्रतिम प्रभाव था और वह प्रभाव निरन्तर चलता रहे, इस दृष्टि से उन्होंने शान्तिचन्द्रगणि, भानुचन्द्रगणि इत्यादि को अकबर के पास रखा। स्वयं गुजरात की ओर विहार कर गये। भानुचन्द्रगणि का भी सम्राट पर बड़ा प्रभाव रहा। आचार्यश्री ने लाहोर में वासक्षेप भेजकर उनको उपाध्याय पद दिया था और अन्त में ये महोपाध्याय पदधारियों की गणना में आते थे। भानुचन्द्र के मुख से सम्राट अकबर प्रत्येक रविवार को सूर्यसहस्र नाम का श्रवण करता था। आइने-अकबरी में भी भानुचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है। अकबर के मरण समय तक भानुचन्द्र उनके दरबार में रहे अर्थात् संवत् 1639 से 1660 का समय अकबर के सम्पर्क का रहा। विजयसेनसूरिजी का संवत् 1672 में स्वर्गवास हो जाने पर सोमविजय, भानुचन्द्र, सिद्धिचन्द्र आदि पदधारियों ने विजयतिलकसूरि को पट्टधर बनाया था। __ ये व्युत्पन्न विद्वान् थे। इनके द्वारा निम्न कृतियाँ प्राप्त होती है। रत्नपाल कथानक, विवेकविलास टीका (रचना संवत् 1671), महाकवि बाण कृत कादम्बरी के पूर्व भाग पर टीका, सारस्वत व्याकरणम् टीका, वसन्तराज शकुनशास्त्र पर टीका और सूर्यसहस्रनाम टीका एवं अभिधान चिन्तामणि नाममाला टीका आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। भानुचन्द्रगणि का विशेष परिचय देखना हो तो उनके शिष्य सिद्धिचन्द्र कृत 'भानुचन्द्र चरित्र' अवलोकनीय है। यह चरित्र सिंघी जैन ग्रन्थमाला सिरीज, भारतीय विद्या भवन, बम्बई से प्रकाशित हो चुका है। महोपाध्याय भानुचन्द्र के अनेकों शिष्य थे जिनमें सिद्धिचन्द्र और विवेकचन्द्र प्रसिद्ध थे। विवेकचन्द्र भी प्रतिभाशाली विद्वान् थे किन्तु इस कृति के अतिरिक्त उनकी अन्य कोई कृति प्राप्त नहीं है। अतएव इनके जीवन कलाप का वर्णन करना संभव नहीं है। स्वतन्त्र काव्य रचना से भी अधिक कठिन कार्य है पादपूर्ति रूप में रचना करना। पादपूर्ति में पूर्व कवि वर्णित श्लोकांश को लेकर किसी अन्य विषय पर रचना करते हुए उस पूर्व कवि के भावों को सुरक्षित रखना वस्तुतः कठिन कार्य है। भक्तामर स्तोत्र श्री मानतुङ्गसूरिजी रचित है। भक्तामर और कल्याण मन्दिर ये ऐसे विश्व प्रसिद्ध स्तोत्र हैं जो कि आज भी श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में मान्य है। श्वेताम्बर परम्परा 44 पद्यों का स्तोत्र मानती है जबकि दिगम्बर परम्परा 48 पद्यों का। पादपूर्ति दो प्रकार से होती है। एक तो सम्पूर्ण पद्यों के प्रत्येक चरण का आधार मानते हुए रचना करना और दूसरा पद्य के अन्तिम चरण को ग्रहण कर और भाव को सुरक्षित रखते हुए रचना करना। इस लेख संग्रह 347 23

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