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* प्राचार्य कुन्द-कुन्द के सदुपदेश * परम पूज्य श्री १०८ प्राचार्य विद्यानन्दजी महाराज की प्रेरणा से सर्वत्र भारत भर में दिनांक ३०-७-८८ से दो वर्ष तक प्राचार्य श्री कुन्द-कुन्द द्विसहस्त्राब्दि समारोह मनाये जा रहें है। प्रस्तुत ग्रन्थराज भी इसी अवधि के बीच प्रकाशित किया गया है और प्राचार्य कुन्द-कुन्द द्वारा आज से दो हजार वर्ष पहने रचित अमर काव्य "कुरल" का कुछ हिन्दी रूपान्तर निम्न प्रकार है ।
१. यदि तुम सर्वज्ञ परमेश्वर के श्री चरणो की पूजा नही करते हो तो तुम्हारी सारी विद्वता किस काम की ?
२ देखो | जो मनुष्य प्रभु के गुणो का उत्साहपूर्वक गान करते है, उन्हे अपने भले बुरे कर्मो का दुखद फल नही भोगना पडता।
३ धन वैभव और इन्द्रिय सुख के तूफानी समुद्र को वे ही पार कर सकते है जो धर्म सिधु मुनिश्वर के चरणो मे लीन रहते है।
__४ त्याग तपस्या की चट्टान पर खडे हुए मुनि महात्मानो के क्रोध को एक क्षण भी सह लेना असभव है।
५. धर्म से मनुष्य को मोक्ष मिलता है, और उससे स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है फिर भला धर्म से बढकर लाभदायक वस्तु और क्या है ?
६ अपना अन्त करण पवित्र रखो, धर्म का समस्त सार बस इसी उपदेश मे समाया हुआ है । अन्य सब बाते और कुछ नहीं केवल शब्दाडम्बर मात्र है ।
७ ईफ लालच, क्रोध, और अप्रिय वचन इन सबसे दूर रहो, धर्म प्राप्ति का यही मार्ग है।
८ मुझ से यह मत पूछो कि धर्म करने से क्या लाभ है ? बस एक बार पालकी उठाने वाले कहारो की ओर देख ले और फिर उस आदमी की और देखो, जो उस पालकी मे सवार है।
६ सद्गृहस्थ-अनाथो का नाथ, गरीबो का सहायक और निराश्रितो का मित्र है।
१० जो बुराई से डरता है और भोजन करने से पहले दूसरो को दान देता है उसका वश कभी निर्वीज नहीं होता।