Book Title: Kya Shastro Ko Chunoti Di Ja Sakti Hai
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

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Page 6
________________ मात्र है, विचारों एवं मान्यताओं के मनकों की माला है। शास्त्र के सम्बन्ध में यह बात नहीं हो सकती। शास्त्र : सत्य का साक्षात् दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में मैंने आपसे बताया-वह सत्य का साक्षात् दर्शन होता है। सत्य सदा अखण्ड, संपूर्ण एवं समग्र मानव चेतना को स्पर्श करने वाला होता है। हमारी संस्कृति में 'सत्य' के साथ 'शिव' संलग्न रहता है। सत्य के दर्शन में सृष्टि की समग्र चेतना के कल्याण की छवि प्रतिबिम्बित रहती है। भौतिक विज्ञान भी सत्य का उद्घाटन करता है, किन्तु उसके उद्घाटन में केवल बौद्धिक स्पर्श होता है, समग्र चैतन्य की शिवानुभूति का आधार नहीं होता, इसीलिए मैं उसे धर्मशास्त्र की सीमा में नही मान सकता। शास्त्र के सम्बन्ध में हमारी यह भी एक धारणा है कि शास्त्र आर्षवाणी अर्थात् ऋषि की वाणी है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा की है-सत्य का साक्षात् द्रष्टा, ऋषि होता है। ऋषि-दर्शनात्। हर साधक ऋषि नहीं कहलाता, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा और तर्कशुद्ध ज्ञान के द्वारा जो सत्य की स्पष्ट अनुभूति कर सकता है, वही वस्तुतः ऋषि है। इसलिए वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा के रूप में अंकित किया गया है। हाँ, तो मैं कहना यह चाहता हूँ कि भारत की वैदिक एवं जैन परंपरा में आर्षवाणी का अर्थ साक्षात् सत्यानुभूति पर आधारित शिवत्व का प्रतिपादक मौलिक ज्ञान होता है। शास्त्र का उपदेष्टा आँख मूंदकर उधार लिया हुआ शिवत्व शून्य ज्ञान नहीं देता। उसका सर्व-जन-हिताय उपदेश अन्त:स्फूर्त निर्मल ज्ञान के प्रवाह से उद्भूत होता है, जिसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से होता है। आत्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन स्वरूप आलोक को व्यक्त करना एवं आत्मस्वरूप पर छाई हुई विभाव परिणतियों की मलिनता का निवारण करना यही आर्षवाणी का मुख्य प्रतिपाद्य होता है। जैन परम्परा के महान् प्रतिनिधि आगमवेत्ता आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण से जब पूछा गया कि शास्त्र किसे कहते हैं ? तो उन्होंने बताया सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमायावतो सत्य। जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं 14 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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