Book Title: Kya Shastro Ko Chunoti Di Ja Sakti Hai
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ सुमेरु की चर्चा करने वाले शास्त्रों को महत्त्व देना चाहते हैं या भगवान् को ? आपके मन में भगवद्भक्ति का उद्रेक है या शास्त्र मोह का? आप कहेंगे शास्त्र नहीं रहा, तो भगवान् का क्या पता चलेगा? शास्त्र ही तो भगवान् का ज्ञान कराते हैं। बात ठीक है, शास्त्रों से ही भगवान् का ज्ञान होता है। हम आत्मा हैं और भगवान् परमात्मा हैं। आत्मा परमात्मा में क्या अन्तर है? अशुद्ध और शुद्ध स्थिति काही तो अन्तर है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही भगवान् है, भगवान् का स्वरूप है। इस प्रकार भगवान् का स्वरूप आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है । और जो शास्त्र आत्मस्वरूप का ज्ञान करानेवाला है, आत्मा से परमात्मा होने का मार्ग बताने वाला है, जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता का पथ दिखाने वाला है, वास्तव में वही धर्मशास्त्र है, और उसी धर्मशास्त्र की हमें आवश्यकता है। किन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र आत्मस्वरूप की जगह आत्म-विभ्रम का कारण खड़ा कर देता है, हमें अन्तर्मुख नहीं, अपितु बहिर्मुख बनाता है, उसे शास्त्र की कोटि में रखने से क्या लाभ है? वह तो उल्टा हमें भगवत् श्रद्धा से दूर खदेड़ता है, मन को शंकाकुल बनाता है, और प्रबुद्ध लोगों को हमारे शास्त्रों पर, हमारे भगवान् पर अंगुली उठाने का मौका देता है। आप तटस्थ दृष्टि से देखिए कि ये भूगोल - खगोल सम्बन्धी चर्चाएँ, ये चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत और समुद्र आदि के लम्बे चौड़े वर्णन करने वाले शास्त्र हमें आत्मा को बन्धन मुक्त करने के लिए क्या प्रेरणा देते हैं? आत्मविकास का कौन-सा मार्ग दिखाते हैं? इन वर्णनों से हमें तप, त्याग, क्षमा, अहिंसा आदि का कौन-सा उपदेश प्राप्त होता है? जिनका हमारी आध्यात्मिक चेतना से कोई सम्बन्ध नहीं, आत्म-साधना से जिनका कोई वास्ता नहीं, हम उन्हें शास्त्र मानें तो क्यों? उन्हें भगवद्वाणी सर्वज्ञ का उपदेश माने तो क्यों ? किस आधार पर ? मैंने प्रारम्भ में एक बात कही थी कि जैन एवं वैदिक परंपरा के अनेक ग्रंथों का निर्माण या नवीन संस्करण ईसापूर्व की पहली शताब्दी से लेकर ईसा पश्चात् चौथी पाँचवी शताब्दी तक होता रहा है। उस युग में जो भी प्राकृत या संस्कृत में लिखा गया उसे धर्म शास्त्र की सूची में चढ़ा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव की स्वतंत्र तर्कणा एक तरह से कुण्ठित हो गई और श्रद्धावनत होकर मानव ने हर किसी ग्रन्थ को शास्त्र एवं आप्तवचन मान लिया। 28 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24