Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
2
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ?
अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही मानव जीवन के मुख्य प्रश्न हैं और बहुत गहरे हैं। जीवन के साथ दोनों का घनिष्ठ संबंध होते हुए भी आज दोनों को भिन्न भूमिकाओं पर खड़ा कर दिया गया है। अध्यात्म को आज कुछ विशेष क्रियाकांडों एवं तथाकथित चालू मान्यताओं के साथ जोड़ दिया गया है और विज्ञान को सिर्फ भौतिक अनुसंधान एवं जगत् के बहिरंग विश्लेषण तक सीमित कर दिया गया है। दोनों ही क्षेत्रों में आज एक वैचारिक प्रतिबद्धता आ गई है, इसलिए एक विरोधाभास सा खड़ा हो गया है, आज के तथाकथित धार्मिकजन विज्ञान को सर्वथा झूठा और गलत बता रहे हैं और विज्ञान भी बेरहमी के साथ धार्मिकों की तथाकथित अनेक मान्यताओं को झकझोर रहा है।
अपोलो- 8 अभी-अभी चन्द्रलोक में परिक्रमा करके आ गया है, वहाँ के चित्र भी ले आया है। अपोलो - 8 के तीनों अमरीकी अंतरिक्ष यात्रियों ने आँखों देखी स्थिति बताई है कि - वहाँ पहाड़ों और गड्ढों से व्याप्त एक सुनसान वीरान धरातल है और उनकी घोषणा को रूस जैसे प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्र के वैज्ञानिकों ने भी सत्य स्वीकार किया है; परन्तु हमारा धार्मिक वर्ग एक सिरे से दूसरे सिरे तक आज इन घोषणाओं से काफी चिंतित हो उठा है। मेरे पास बाहर से अनेक पत्र आये हैं, बहुत से जिज्ञासु प्रत्यक्ष में भी मिले हैं - सबके मन में एक ही प्रश्न तरंगित हो रहा है - " अब हमारे शास्त्रों का क्या होगा ? हमारे शास्त्र तो चंद्रमा को एक महान् देवता के रूप में मानते हैं, सूर्य से भी लाखों मील ऊँचा' चन्द्रमा का स्फटिक रत्नों का विमान है, उस पर सुंदर वस्त्र- - आभूषणों से अलंकृत देव - देवियाँ हैं । " चन्द्र विमान एक लाख योजन ऊँचे मेरु पर्वत के चारों ओर भ्रमण करता है । चन्द्र मे जो काला धब्बा दिखाई देता है वह मृग का चिह्न है। हमारे शास्त्रों के इन सब वर्णनों का अब क्या होगा? वहाँ जाने वाले तो बताते हैं, चित्र दिखाते हैं, कि चन्द्र में केवल पहाड़ और खड्डे हैं, किसी यात्री से किसी देवता की मुलाकात भी वहाँ नहीं हुई, यह क्या बात है? ये वैज्ञानिक झूठे हैं या शास्त्र ?
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ?
9
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
शास्त्र झूठे कैसे हो सकते हैं? यह भगवान् ! की वाणी है, सर्वज्ञ की वाणी है । " विज्ञान व अध्यात्म का क्षेत्र
मैं सोचता हूँ, धार्मिक के मन में आज जो यह अकुलाहट पैदा हो रही है, धर्म के प्रतिनिधि तथाकथित शास्त्रों के प्रति उसके मन में जो अनास्था एवं विचिकित्सा का ज्वार उठ रहा है, उसका एक मुख्य कारण है - वैचारिक प्रतिबद्धता ! कुछ परंपरागत रूढ़ विचारों के साथ उसकी धारणा जुड़ गई है, कुछ तथाकथित ग्रंथों और पुस्तकों को उसने धर्म का प्रतिनिधि शास्त्र समझ लिया है, वह न तो इसका ठीक तरह बौद्धिक विश्लेषण कर सकता है और न ही विश्लेषण प्राप्त सत्य के आधार पर उनके मोह को ठुकरा सकता है। वह बार-बार दुहराई गई धारणा एवं रूढ़िगत मान्यता के साथ बँध गया है, प्रतिबद्ध हो गया है, बस, प्रतिबद्धता - आग्रह ही उसके मन की विचिकित्सा का कारण है।
यह
शास्त्र की चर्चा करने से पहले एक बात हमें समझ लेनी है कि अध्यात्म और विज्ञान राम-रावण जैसे कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। दोनों ही विज्ञान हैं, एक आत्मा का विज्ञान है तो दूसरा प्रकृति का विज्ञान है । अध्यात्म विज्ञान के अंतर्गत आत्मा के शुद्धाशुद्ध स्वरूप, बंधमोक्ष, शुभाशुभ परिणतियों का ह्रास - विकास आदि का विश्लेषण आता है। और विज्ञान, जिसे मैं प्रकृति का विज्ञान कहना ठीक समझता हूँ, इसमें हमारे शरीर, इंद्रिय, मन, इनका संरक्षण - पोषण एवं चिकित्सा आदि, तथा प्रकृति का अन्य मार्मिक विश्लेषण समाहित होता है। दोनों का ही जीवन की अखंड सत्ता के साथ संबंध है। एक जीवन की अंतरंग धारा का प्रतिनिधि है तो एक बहिरंग धारा का । अध्यात्म का क्षेत्र मानव का अंतःकरण, अंतस्चैतन्य एवं आत्मतत्त्व रहा है, जबकि आज के विज्ञान का क्षेत्र प्रकृति के अणु से लेकर विराट् खगोल- भूगोल आदि का प्रयोगात्मक अनुसंधान करना है, इसलिए वह हमारी भाषा में बहिरंग ज्ञान है, जबकि अंतरंग चेतना का विवेचन, विशोधन एवं ऊर्ध्वकरण करना अध्यात्म का विषय है, वह अंतरंग ज्ञान है ।
इस दृष्टि से विज्ञान व अध्यात्म में प्रतिद्वंद्विता नहीं, अपितु पूरकता आती है। विज्ञान प्रयोग है, अध्यात्म योग है। विज्ञान सृष्टि की, परमाणु आदि की चमत्कारी शक्तियों का रहस्य उद्घाटित करता है, प्रयोग द्वारा उन्हें हस्तगत करता है, और अध्यात्म उन शक्तियों का कल्याणकारी उपयोग करने की दृष्टि देता है।
10 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानव चेतना को विकसित, निर्भय वह निर्द्वन्द्व बनाने की दृष्टि अध्यात्म के पास है । भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों का कब, कैसे, कितना और किसलिए उपयोग करना चाहिए, इसका निर्णय अध्यात्म देता है, वह भौतिक प्रगति को विवेक की आँख देता है - फिर कैसे कोई विज्ञान और अध्यात्म को विरोधी मान सकता है ?
हमारा प्रस्तुत जीवन केवल आत्ममुखी होकर नहीं टिक सकता, और न केवल बहिर्मुखी ही रह सकता है। जीवन की दो धाराएँ हैं, एक बहिरंग, दूसरी अंतरंग। दोनों धाराओं को साथ लेकर चलना, यही तो जीवन की अखंडता है। बहिरंग जीवन में विशृंखलता नहीं आये, द्वंद्व नहीं आये, इसके लिए अंतरंग जीवन की दृष्टि अपेक्षित है। अंतरंग जीवन आहार-विहार आदि के रूप में बहिरंग से, शरीर आदि से, सर्वथा निरपेक्ष रहकर चल नहीं सकता, इसलिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। भौतिक और आध्यात्मिक सर्वथा निरपेक्ष दो अलग-अलग खंड नहीं हो सकते, बल्कि दोनों को अमुक स्थिति एवं मात्रा में साथ लेकर ही चला जा सकता है, तभी जीवन सुंदर, उपयोगी एवं सुखी रह सकता है। इस दृष्टि से मैं सोचता हूँ तो लगता है - अध्यात्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान दोनों ही जीवन के अंग हैं, फिर इनमें विरोध और द्वंद्व की बात क्या रह जाती है? यही आज का मुख्य प्रश्न है !
शास्त्र बनाम ग्रन्थ
जैसा मैंने आपसे कहा - भौतिक विज्ञान के कुछ भूगोल - खगोल संबंधी अनुसंधानों के कारण धर्मग्रन्थों की कुछ मान्यताएँ आज टकरा रही हैं, वे असत्य सिद्ध हो रही हैं, और उन ग्रंथों पर विश्वास करने वाला वर्ग लड़खड़ा रहा है, अनास्था से जूझ रहा है। सैकड़ों वर्षों से चले आये ग्रन्थों और उनके प्रमाणों को एक क्षण में कैसे अस्वीकार कर लें और कैसे विज्ञान के प्रत्यक्ष सिद्ध तथ्यों को झुठलाने का दुस्साहस कर लें। बस, यह वैचारिक प्रतिद्वंद्विता का संघर्ष ही आज धार्मिक मानस में उथल-पुथल मचाए जा रहा है । जहाँ-जहाँ परंपरागत वैचारिक प्रतिबद्धता, तर्कहीन विश्वासों की जड़ता विजयी हो रही है, वहाँ-वहाँ विज्ञान को असत्य, भ्रामक और सर्वनाशी कहने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं है। मैं समझता हूँ, इसी भ्रांति के कारण विज्ञान को धर्म का विरोधी एवं प्रतिद्वंद्वी मान लिया गया है और धार्मिकों की इसी अंधप्रतिबद्धता एवं नफरत के उत्तर में नई
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 11
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिशा के उग्र विचारकों ने धर्म को एक मादक अफीम करार दिया है। पाखंड और असत्य का प्रतिनिधि बता दिया है।
यदि हम संतुलित होकर समझने- सोचने का प्रयत्न करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि तथाकथित धर्मग्रन्थों की मान्यता के साथ विज्ञान के अनुसंध क्यों टकरा रहे है ? इस संदर्भ में दो बातें हमें समझनी होंगी - पहली यह कि शास्त्र की परिभाषा क्या है, उसका प्रयोजन और प्रतिपाद्य क्या हे ? और दूसरी यह कि शास्त्र के नाम पर चले आ रहे प्रत्येक ग्रन्थ, स्मृति, पुराण और अन्य संदर्भ पुस्तकों को अक्षरशः सत्य मानें या नहीं?
ग्रंथ और शास्त्र में भेद है
पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि शास्त्र एक बहु पवित्र एवं व्यापक शब्द है, इसकी तुलना में ग्रंथ का महत्त्व बहुत कम है। यद्यपि शब्दकोष की दृष्टि से ग्रंथ और शास्त्र को पर्यायवाची शब्द माना गया है, किंतु व्याकरण की दृष्टि से ऐसा नहीं माना जा सकता, उनके अर्थ में अवश्य ही मौलिक अंतर रहता है। शास्त्र और ग्रंथ को भी मैं इस प्रकार दो अलग-अलग शब्द मानता हूँ।
शास्त्र का संबंध अंतर् से है, सत्यं शिवं सुन्दरम् की साक्षात् अनुभूति से है, स्व-पर कल्याण की मति - गति - कृति से है, जबकि ग्रन्थ के साथ ऐसा नियम नहीं है। शास्त्र सत्य के साक्षात् दर्शन एवं आचरण का उपदेष्टा होता है, जबकि ग्रन्थ इस तथ्य के लिए प्रतिनियत नहीं है। शास्त्र और ग्रंथ के संबंध में यह विवेक यदि हमारी बुद्धि में जग गया तो फिर विज्ञान और अध्यात्म में, विज्ञान और धर्म में तथा विज्ञान और शास्त्र में कोई टकराहट नहीं होगी, कोई किसी को असत्य एवं सर्वनाशी सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करेगा।
धर्मग्रन्थों के प्रति, चाहे वे जैन सूत्र हैं, चाहे स्मृति और पुराण हैं, आज के बुद्धिवादी वर्ग में एक उपहास की भावना बन चुकी है, और सामान्य - श्रद्धालु वर्ग में उनके प्रति अनास्था पैदा हो रही है - इसका कारण यही है कि हमने शास्त्र की मूल मर्यादाओं को नहीं समझा, ग्रंथ का अर्थ नहीं समझा और संस्कृत, प्राकृत में जो भी कोई प्राचीन कहा जानेवाला ग्रंथ मिला, उसे शास्त्र मान बैठे, भगववाणी मान बैठे, और गले से खूब कसकर बाँध लिया कि यह हमारा धर्मग्रंथ है, यह ध्रुव सत्य है, इसके विपरीत जो कुछ भी कोई कहता है, वह झूठ गलत है।
है,
12 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा
द्वितीय पुष्प
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
कहते हैं कि सऊदी अरब में सबसे पहले टेलीफोन के तार की लाइन डाली जा रही थी तो वहाँ धर्मगुरु मौलवी लोगों ने बड़ा भारी विरोध किया। धार्मिक जनता को भड़काया कि यह शैतान का काम है, कुरान शरीफ के हुक्म के खिलाफ है। वाद-विवाद उग्र हो चला, इधर-उधर उत्तेजना फैलने लगी तो वहाँ के तत्कालीन बुद्धिमान बादशाह इब्न सऊदी ने फैसला दिया कि-"इसकी परीक्षा होनी चाहिए कि दरअसल ही यह शैतान का काम है या नहीं। इसके लिए दो मौलानाओं को नियत किया गया कि वे क्रमशः टेलीफोन पर कुरान की आयतें पढ़ें। यदि शैतान का काम होगा तो वे पवित्र आयतें तार से उस पार सुनाई नहीं देंगी, यदि सुनाई दी तो वह शैतान का काम नहीं होगा।" आप जान सकते हैं, क्या प्रमाणित हुआ? वही प्रमाणित हुआ, जो प्रमाणित हो सकता था। सत्य के समक्ष भ्रांत धारणाओं के दावे कब तक टिक सकते हैं?
धर्मग्रन्थों के प्रति इस प्रकार का जो विवेकहीन बँधा बँधाया दृष्टिकोण है, यह केवल भारत को ही नहीं, बल्कि संपूर्ण धार्मिक विश्व को जकड़े हुए है। यह सब कब से चला आ रहा है, कहा नहीं जा सकता। ग्रंथों से चिपटे रहने की इस जड़ता ने कितने वैज्ञानिकों को मौत के घाट उतरवाया, कितने को देश त्याग करवाया? यह इतिहास के पृष्ठों पर आज भी पढ़ा जा सकता है। ग्रंथ : संकलन मात्र
हाँ, तो मैंने कहा-मानव मस्तिष्क में विचारों की यह प्रतिबद्धता ग्रन्थ ने पैदा की है। ग्रन्थ का अर्थ-ग्रन्थि ! गाँठ ! जैन भिक्षु को, श्रमण को निर्ग्रन्थ कहा गया है। अर्थात् उसके भीतर में मोह, आसक्ति आदि की कोई गाँठ नहीं होती, ग्रन्थि नहीं होती। गाँठ तब डाली जाती है जब कुछ जोड़ना होता है, संग्रह करना होता है। कुछ इधर से लिया, कुछ उधर से लिया, गाँठ डाली, जुड़ गया, या जोड़ लिया और गाँठ लगाई-इस प्रकार लेते गए, जोड़ते गए और ग्रन्थ तैयार होते गए। ग्रन्थ शब्द के इसी भाव को हिन्दी की 'गूंथना' क्रिया व्यक्त करती है। माली फूलों को धागे में पिरोता है तब एक फूल लिया, गाँठ डाली, फिर फूल लिया, और फिर गाँठ डाली, इस प्रकार पिरोता जाता है, गांठें डालता जाता है
और माला तैयार हो जाती है। बिना गाँठे डाले माला तैयार नहीं होती। इसी प्रकार विचारों की गाँठे जोड़े बिना ग्रन्थ भी कैसे तैयार होगा? इसका अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के लिए मौलिक चिंतन की अपेक्षा नहीं रहती, वह तो एक संकलन
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 13
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
मात्र है, विचारों एवं मान्यताओं के मनकों की माला है। शास्त्र के सम्बन्ध में यह बात नहीं हो सकती। शास्त्र : सत्य का साक्षात् दर्शन
शास्त्र के सम्बन्ध में मैंने आपसे बताया-वह सत्य का साक्षात् दर्शन होता है। सत्य सदा अखण्ड, संपूर्ण एवं समग्र मानव चेतना को स्पर्श करने वाला होता है। हमारी संस्कृति में 'सत्य' के साथ 'शिव' संलग्न रहता है। सत्य के दर्शन में सृष्टि की समग्र चेतना के कल्याण की छवि प्रतिबिम्बित रहती है। भौतिक विज्ञान भी सत्य का उद्घाटन करता है, किन्तु उसके उद्घाटन में केवल बौद्धिक स्पर्श होता है, समग्र चैतन्य की शिवानुभूति का आधार नहीं होता, इसीलिए मैं उसे धर्मशास्त्र की सीमा में नही मान सकता।
शास्त्र के सम्बन्ध में हमारी यह भी एक धारणा है कि शास्त्र आर्षवाणी अर्थात् ऋषि की वाणी है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा की है-सत्य का साक्षात् द्रष्टा, ऋषि होता है। ऋषि-दर्शनात्। हर साधक ऋषि नहीं कहलाता, किन्तु अपनी सूक्ष्म प्रज्ञा और तर्कशुद्ध ज्ञान के द्वारा जो सत्य की स्पष्ट अनुभूति कर सकता है, वही वस्तुतः ऋषि है। इसलिए वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा के रूप में अंकित किया गया है। हाँ, तो मैं कहना यह चाहता हूँ कि भारत की वैदिक एवं जैन परंपरा में आर्षवाणी का अर्थ साक्षात् सत्यानुभूति पर आधारित शिवत्व का प्रतिपादक मौलिक ज्ञान होता है। शास्त्र का उपदेष्टा आँख मूंदकर उधार लिया हुआ शिवत्व शून्य ज्ञान नहीं देता। उसका सर्व-जन-हिताय उपदेश अन्त:स्फूर्त निर्मल ज्ञान के प्रवाह से उद्भूत होता है, जिसका सम्बन्ध सीधा आत्मा से होता है। आत्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन स्वरूप आलोक को व्यक्त करना एवं आत्मस्वरूप पर छाई हुई विभाव परिणतियों की मलिनता का निवारण करना यही आर्षवाणी का मुख्य प्रतिपाद्य होता है।
जैन परम्परा के महान् प्रतिनिधि आगमवेत्ता आचार्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण से जब पूछा गया कि शास्त्र किसे कहते हैं ? तो उन्होंने बताया
सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमायावतो सत्य। जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं
14 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
आत्मा का अनुशासन किया जा सके, वह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास् धातु से बना है, जिसका अर्थ-शासन, शिक्षण, उद्बोधन ! अतः शास्त्र का अर्थ हुआ-जिस तत्त्वज्ञान के द्वारा आत्मा अनुशासित होता है, उबुद्ध होता है, वह तत्त्वज्ञान शास्त्र है। आचार्य जिनभद्र की यह व्याख्या उनकी स्वतन्त्र कल्पना नहीं है, इसका आध पर जैन आगम है। आगम में भगवान् महावीर की वाणी का यह उद्घोष हुआ है कि-जिसके द्वारा आत्मा जागृत होती है, तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, वह शास्त्र है।
उत्तराध्ययन सूत्र, जो भगवान् महावीर की अंतिम वाणी माना जाता है, उसके तीसरे अध्ययन में चार बातें दुर्लभ बताई गई हैं-"माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं"' अर्थात् मनुष्यत्व, शास्त्रश्रवण, श्रद्धा और संयम में पराक्रम-पुरुषार्थ ! आगे चलकर बताया गया है कि श्रुति अर्थात् शास्त्र कैसा होता है?-"जं सोच्चा पडिवति तवं खंतिमहिंसयं" --जिसको सुनकर साधक का अंतर्मन प्रतिबद्ध होता है, उसमें तप की भावना जागृत होती है और फलतः इधर-उधर बिखरी हई अनियंत्रित उद्दाम इच्छाओं का निरोध किया जाता है। इच्छा निरोध से संयम की ओर प्रवृत्ति होती है, क्षमा की साधना में गतिशीलता आती है-वह शास्त्र है।
इस संदर्भ में इतना बता देना चाहता हूँ कि 'खंति' आदि शब्दों की भावना बहुत व्यापक है-इसे भी समझ लेना चाहिए। क्षमा का अर्थ केवल क्रोध को शांत करने तक ही सीमित नहीं है, अपितु कषायमात्र का शमन करना है। जो क्रोध का शमन करता है, मान का शमन करता है, माया और लोभ की वृत्तियों का शमन करता है, वही सच्चा 'क्षमावान्' है। 'क्षमा' का मूल अर्थ 'समर्थ' होना भी है, जो कषायों को विजय करने में सक्षम अर्थात् समर्थ होता है, जो क्रोध, मान आदि की वृत्तियों को विजय कर सके, मन को सदा शांत-उपशांत रख सके-वह 'क्षमावान्' कहलाता है। शास्त्र का लक्ष्य श्रेयभावना
शास्त्र की प्रेरकता में तप और क्षमा के साथ अहिंसा शब्द का भी उल्लेख किया गया है। अहिंसा की बात कहकर समग्र प्राणिजगत् के श्रेय एवं कल्याण की भावना का समावेश शास्त्र में कर दिया गया है। भगवान् महावीर
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 15
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
ने अहिंसा को 'भगवती' कहा है । " महान् श्रुतधर आचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को परब्रह्म कहा है। 2 इसका मतलब है- अहिंसा एक विराट् आध्यात्मिक चेतना है, समग्र प्राणिजगत् के शिवं एवं कल्याण का प्रतीक है। आपको याद है - इसीलिए मैं 'सत्यं' के साथ 'शिवं' की मर्यादा भी बतला चुका हूँ । अहिंसा हमारे 'शिवं' की साधना है। करुणा, कोमलता, सेवा, सहयोग, मैत्री और अभय- ये सब अहिंसा की ही फलश्रुतियाँ हैं। हाँ तो, इस प्रकार शास्त्र की परिभाषा हुई कि तप, क्षमा एवं अहिंसा के द्वारा जीवन को साधने वाला, अंतरात्मा को परिष्कृत करने वाला जो तत्त्वज्ञान है, वह शास्त्र है।
शास्त्र का प्रयोजन
शास्त्र की परिभाषा समझ लेने पर इसका प्रयोजन क्या है? यह भी स्पष्ट हो जाता है। भगवान् शास्त्र का प्रवचन किसलिए करते है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी आर्य सुधर्मा ने कहा है - " सव्व- जग-जीवरक्खण- दट्ट्याए भगवया पावयणं सुकहियं "13 समस्त प्राणिजगत् की सुरक्षा एवं दया भावना से प्रेरित होकर उसके कल्याण के लिए भगवान ने उपदेश किया।
44
1113
परिभाषा और प्रयोजन कहीं भिन्न-भिन्न होते हैं और कहीं एक भी। यहाँ परिभाषा में प्रयोजन स्वतः निहित है । यों शास्त्र की परिभाषा में ही शास्त्र का प्रयोजन स्पष्ट हो गया है और अलग प्रयोजन बतला कर भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि शास्त्र का शुद्ध प्रयोजन विश्व के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है। शास्त्र के इस प्रयोजन को जैन भी मानते हैं, बौद्ध और वैदिक भी मानते हैं, ईसाई और मुसलमान भी यही बात कहते है कि ईसा और मुहम्मद साहब दुनिया की भलाई के लिए प्रेम और मुहब्बत का पैगाम लेकर आये ।
मैं समझता हूँ शास्त्र का यह एक ऐसा व्यापक और विराट् उद्देश्य है, जिसे कोई भी तत्त्वचिंतक चुनौती नहीं दे सकता।
जैन श्रुत परम्परा के महान् ज्योतिर्धर आचार्य हरिभद्र के समक्ष जब शास्त्र के प्रयोजन का प्रश्न आया तो उन्होंने भी यही बात दुहरा कर उत्तर दिया
मलिनस्य यथात्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः | 14
16 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिस प्रकार जल वस्त्र की मलिनता का प्रक्षालन करके उसे उज्ज्वल बना देता है, वैसे ही शास्त्र भी मानव के अंत:करण में स्थित काम क्रोध आदि कालुष्य का प्रक्षालन करके उसे पवित्र तथा निर्मल बना देता है। इस प्रकार भगवान् महावीर से लेकर एक हजार से कुछ अधिक वर्ष तक के चिंतन में शास्त्र की यही एक सर्वमान्य परिभाषा प्रस्तुत हुई कि “जिसके द्वारा आत्म-परिबोध हो, आत्मा अहिंसा एवं संयम की साधना के द्वारा पवित्रता की ओर गति करे, उस तत्त्वज्ञान को शास्त्र कहा जाता है।" शास्त्र के नाम पर
अब मैं जरा अपनी पिछली बात को दुहरा ढूँ। मानवता के सार्वभौम चिंतन एवं विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के कारण आज यह प्रश्न खड़ा हो गया है कि इन शास्त्रों का क्या होगा? विज्ञान की बात का उत्तर क्या है, इन शास्त्रों के पास !
पहली बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि जैसी कि हमने शास्त्र की परिभाषा समझी है, वह स्वयं में एक विज्ञान है, सत्य है। तो क्या विज्ञान, विज्ञान को चुनौती दे सकता है? सत्य सत्य को चुनौती दे सकता है? नहीं ! एक सत्य दूसरे सत्य को काट नहीं सकता, यदि काटता है, तो वह सत्य ही नहीं है। फिर यह मानना चाहिए कि जिन शास्त्रों को हमारा मानवीय चिंतन, तथा प्रत्यक्ष विज्ञान चुनौती देता है, वे शास्त्र नहीं हो सकते, वे शास्त्र के नाम पर पलने वाले ग्रंथ या किताबें हैं। चाहे वे जैन आगम हैं, या श्रुति स्मृतियाँ और पुराण हैं, चाहे पिटक हैं या बाइबिल एवं कुरान हैं। मैं पुराने या नये किन्हीं भी विचारों की अंध प्रतिबद्धता स्वीकार नहीं करता। शास्त्र या श्रुति-स्मृति के नाम पर, आँख भीचकर किसी चीज को सत्य स्वीकार कर लेना मुझे सह्य नहीं है। मुझे ही क्या, किसी भी चिंतक को सह्य नहीं है। और फिर जो शास्त्र की सर्वमान्य व्यापक कसौटी है, उस पर वे खरे भी तो नहीं उतर रहे हैं।
जिन धर्म शास्त्रों ने धर्म के नाम पर पशुहिंसा' एवं नरबलि का प्रचार किया,6 मानव-मानव के बीच में घृणा एवं नफरत की दीवारें खड़ी की, क्या वह सत्यद्रष्टा ऋषियों का चिंतन था? मानवजाति के ही एक अंग शूद्र के लिए कहा गया कि-वह जीवित श्मशान है। उसकी छाया से भी बचना चाहिए, तो क्या अखंड मानवीयता की अनुभूति वहाँ पर कुछ भी हुई होगी? जिस नारी ने मातृत्व का महान
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 17
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
गौरव प्राप्त करके समग्र मानव जाति को अपने वात्सल्य से प्रीणित किया, उसके लिए यह कहना कि "न स्त्रीभ्यः कश्चिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति वै-स्त्रियों से बढ़कर अन्य कोई दुष्ट नहीं है । क्या यह धर्म का अंग हो सकता है? वर्ग-संघर्ष, जाति-विद्वेष एवं सांप्रदायिक घृणा के बीज बोने वाले ग्रंथों ने जब मानव चेतना को खंड-खंड करके यह उद्घोष किया कि "अमुक संप्रदाय वाले का स्पर्श होने पर शुद्धि के लिए-सचैलो जलमाविशेत् कपड़ों सहित ही पानी में डुबकी लगा लेनी चाहिए"-तब क्या उनमें कहीं आत्म-परिबोध की झलक थी?
मैंने बताया कि ऋषि वह है, जो सत्य का साक्षात्द्रष्टा एवं चिंतक है, प्राणिमात्र के प्रति जो विराट् आध्यात्मिक चेतना की अनुभूति कर रहा है क्या उस ऋषि या श्रमण के मुख से कभी ऐसी वाणी फूट सकती है? कभी नहीं ! वेद, आगम और पिटक जहाँ एक ओर मैत्री का पवित्र उद्घोष कर रहे हैं, क्या उन्हीं के नाम पर, उन्हीं द्रष्टा ऋषि व मुनियों के मुख से मानव-विद्वेष की बात कहलाना शास्त्र का गौरव है?
शास्त्रों के नाम पर जहाँ एक ओर ऐसी बेतुकी बातें कही गई, वहाँ दूसरी ओर भूगोल-खगोल के संबंध में भी बड़ी विचित्र, अनर्गल एवं असंबद्ध कल्पनाएँ खड़ी की गई हैं। पृथ्वी, समुद्र, सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्र आदि के संबंध में इतनी मनमोहक किन्तु प्रत्यक्ष बाधित बातें लिखी गई है कि जिनका आज के अनुसंधानों के साथ कोई संबंध नहीं बैठता। मैं मानता हूँ कि इस प्रकार की कुछ धारणाएँ उस युग में व्यापक रूप से प्रचलित रही होंगी, श्रुतानुश्रुत परम्परा या अनुमान के आधार पर जन समाज उन्हें एक दूसरे तक पहुँचाता आया होगा। पर क्या उन लोकप्रचलित मिथ्या धारणाओं को शास्त्र का रूप दिया जा सकता है? शास्त्र का उनके साथ क्या संबंध है? मध्यकाल के किसी विद्वान ने संस्कृत या प्राकृत ग्रंथ के रूप में कुछ भी लिख दिया, या पुराने शास्त्रों में अपनी ओर से कुछ नया प्रक्षिप्त कर दिया और किसी कारण उसने वहाँ अपना नाम प्रकट नहीं किया, तो क्या वह शास्त्र हो गया? उसे धर्मशास्त्र मान लेना चाहिए? उसे भगवान् या ऋषियों की वाणी मानकर शिरोधार्य कर लेना चाहिए? उत्तरकालीन संकलन
वैदिक साहित्य का इतिहास पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उत्तरकाल में कितने बड़े-बड़े धर्मग्रन्थों की रचनाएँ हुईं। स्मृतियाँ, पुराण, महाभारत
18 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
और गीता, जिन्हें आज का धार्मिक मानस ऋषियों की पवित्र वाणी एवं भगवान् श्रीकृष्ण का उपदेश मान रहा है, वह कब, कैसे, किन परिस्थितियों में रचे गये, या परिवर्धित किये गए, और रचनाकार एवं परिवर्धनकार ने भले ही विनम्र भाव से ऐसा किया हो, फलतः अपना नामोल्लेख भी नहीं किया हो, पर यह सब गलत हुआ है। मैं बताना चाहता हूँ कि जिस महाभारत को आज आप धर्मशास्त्र मानते हैं, और व्यासऋषि के मुख से नि:सृत, गणपति द्वारा संकलित मानते हैं, वह प्रारम्भ में केवल छोटा-सा इतिहास ग्रंथ था, जिसमें पांडवों की विजय का वर्णन होने से 'जय' नाम से प्रख्यात था। जब इसका दूसरा संस्करण ई. पू. 176 के पूर्व तैयार हुआ तो उसका नाम भारत रखा गया, ओर बहुत समय बाद प्रक्षिप्त अंशों की वृद्धि होते-होते वह महाभारत बन गया। आज की गीता का समूचा पाठ, क्या सचमुच में ही कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया गया श्रीकृष्ण का उपदेश है, या बाद के किसी विद्वान की परिवर्द्धित रचना या संकलन है? मनुस्मृति जो हिंदुओं का मानव धर्मशास्त्र कहलाता है, अपने आज के रूप में किस मनु की वाणी है, किसने उसे बनाया? ये तथ्य आज इतिहास से छिपे नहीं रहे हैं।2
मैं इन धर्मग्रन्थों का, जिनमें काफी अच्छा अंश जीवन-निर्माण का भी है, किसी सांप्रदायिक दृष्टि से विरोध नहीं कर रहा हूँ किंतु, यह बताना चाहता हूँ कि मध्यकाल में जिस किसी विद्वान ने जो कुछ संस्कृत में लिख दिया या उसे कहीं प्रक्षिप्त कर दिया, उसे हम धर्मशास्त्र मानकर उसके खूटे से अपनी बुद्धि को बाँध लें, यह उचित नहीं। उन ग्रन्थों में जो विशिष्ट चिंतन एवं दर्शन है, समग्र मानव जाति के कल्याण का जो संदेश है, उसका मैं बहुत आदर करता हूँ, और इसीलिए उनका स्वाध्याय व प्रवचनभी करता हूँ। किन्तु इस संबंध में इस वैचारिक प्रतिबद्धता को मैं उचित नहीं समझता कि उनमें जो कुछ लिखा है, वह अक्षरशः सत्य है। उत्तरकाल में आगमों की संकलना
मैं सत्य के संबंध में किसी विशेष चिंतन धारा में कभी प्रतिबद्ध नहीं रहा, सदा उन्मुक्त एवं स्वतंत्र चिंतन का पक्षपाती रहा हूँ, इसलिए जो बात वैदिक ग्रंथों के संबंध में कह सकता हूँ, वह जैन ग्रंथों के संबंध में भी कहते हुए मुझे संकोच नहीं है।
इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते मैं इस तथ्य को मानता हूँ कि प्रत्येक
-
-
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 19
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म परम्परा में समय-समय पर परिवर्तन होते आये हैं, सही के साथ कुछ गलत विचार भी आये हैं और यथावसर उनका परिष्कार भी हुआ है। इसी दिशा में जैन आगमों की मान्यता के सम्बन्ध में मतभेदों की एक लंबी परम्परा भी मेरे समक्ष खड़ी है। उसमें कब, क्या, कितने परिवर्तन हुए, कितना स्वीकारा गया और नकारा गया, इसका भी कुछ इतिहास हमारे सामने आज विद्यमान है।
नन्दी सूत्र, जिसे कि आप आगम मानते हैं और भगवान् के कहे हुये शास्त्रों की कोटि में गिनते हैं, वह भगवान् महावीर से काफी समय बाद की संकलना है। उसके लेखक या संकलन कर्त्ता आचार्य देववाचक थे। भगवान् महावीर और आचार्य देववाचक के बीच के सुदीर्घ काल में देश में कितने बड़े-बड़े परिवर्तन आये, कितने भयंकर दुर्भिक्ष पड़े, राजसत्ता में कितनी क्रांतियाँ और परिवर्तन हुए, धार्मिक परंपराओं में कितनी तेजी से परिवर्तन, परिवर्धन एवं संशोधन हुए, इसकी एक लंबी कहानी है । किन्तु हम उस एक हजार वर्ष पश्चात् संकलित सूत्र को और उसमें उल्लिखित सभी शास्त्रों को भगवान् महावीर की वाणी स्वीकार करते हैं। यह भी माना जाता है कि उपांगों की संकलना महावीर के बहुत बाद में हुई, और प्रज्ञापना जैसे विशाल ग्रंथ के रचयिता भी एक विद्वान आचार्य भगवान् महावीर के बहुत बाद हुए हैं। दशवैकालिक, और अनुयोगद्वार सूत्र भी क्रमशः आचार्य शय्यंभव और आर्यरक्षित की रचना सिद्ध हो चुके हैं। यद्यपि इन आगमों में बहुत कुछ अंश जीवनस्पर्शी है, पर भगवान् महावीर से उनका सीधा संबंध नहीं, यह निश्चत है।
मेरे बहुत से साथी इन उत्तरकालीन संकलनाओं को इसलिए प्रमाण मानते हैं कि इनका नामोल्लेख अंग साहित्य में हुआ है और अंग सूत्रों का सीध ा सम्बन्ध महावीर से जुड़ा हुआ है। मैं समझता हूँ कि यह तर्क सत्य स्थिति को अपदस्थ नहीं कर सकता, हकीकत को बदल नहीं सकता। भगवती जैसे विशालकाय अंग सूत्र में महावीर के मुख से यह कहलाना कि- 'जहा पण्णवणाए' - जैसा प्रज्ञापना में कहा है, किस इतिहास से संगत है ? प्रज्ञापना, रायपसेणी और उववाई के उद्धरण भगवान महावीर अपने मुख से कैसे दे सकते है ? जबकि उनकी संकलना बहुत बाद में हुई है ?
इस तर्क का समाधान दिया जाता है कि बाद के लेखकों व आचार्यों ने
20 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
अधिक लेखन से बचने के लिए संक्षिप्त रुचि के कारण स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख कर दिया है। जब यह मान लिया है कि अंग आगमों में भी आचार्यों का अंगुलीस्पर्श हआ है, उन्होंने संक्षिप्तीकरण किया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि कहीं-कहीं कुछ मूल से बढ़ भी गया है, विस्तार भी हो गया है? मैं नहीं कहता कि उन्होंने कुछ ऐसा किसी गलत भावना से किया है, भले ही यह सब कुछ पवित्र प्रभुभक्ति एवं श्रुत महत्ता की भावना से ही हुआ हो, पर यह सत्य है कि जब घटाना संभव है, तो बढ़ाना भी संभव है। और, इस संभावना के साक्ष्य रूप प्रमाण भी आज उपलब्ध हो रहे हैं। भूगोल-खगोल महावीर की वाणी नहीं
यह सर्व सम्मत तथ्य आज मान लिया गया है कि मौखिक परम्परा एवं स्मृतिदौर्बल्य के कारण बहुत-सा श्रुत विलुप्त हो गया है, तो यह क्यों नहीं माना जा सकता कि सर्व साधारण में प्रचलित उस युग की कुछ मान्यताएँ भी आगमों के साथ संकलित कर दी गई हैं ! मेरी यह निश्चित धारणा है कि ऐसा होना संभव है, और वह हुआ है।
उस युग में भुगोल, खगोल, ग्रह, नक्षत्र, नदी, पर्वत आदि के संबंध में कुछ मान्यताएँ आम प्रचलित थीं, कुछ बातें तो भारत के बाहरी क्षेत्रों में भी अर्थात् इस्लाम और ईसाई धर्मग्रन्थों में भी इधर-उधर के सांस्कृतिक रूपान्तर के साथ ज्यों की त्यों उल्लिखित हुई हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि ये धारणाएँ सर्वसामान्य थीं। जो जैनों ने भी लीं, पुराणकारों ने भी ली और दूसरों ने भी ! उस युग में उनके परीक्षण का कोई साधन नहीं था, इसलिए उन्हें सत्य ही मान लिया गया और वे शास्त्रों की पंक्तियों के साथ चिपट गई! पर बाद के उस वर्णन को भगवान् महावीर के नाम पर चलाना क्या उचित है? जिस चंद्रलोक के धरातल के चित्र आज समूचे संसार के हाथों में पहुँच गए हैं और अपोलो 8 के यात्रियों ने आँखों से देखकर बता दिया है कि वहाँ पहाड़ हैं, ज्वालामुखी के गर्त हैं, श्री-हीन उजड़े भूखण्ड हैं, उस चंद्रमा के लिए कुछ पुराने धर्म ग्रन्थों की दुहाई देकर आज भी यह मानना कि वहाँ सिंह, हाथी बैल और घोड़ों के रूप में हजारों देवता हैं, और वे सब मिलकर चन्द्र विमान को वहन कर रहे है;3 कितना असंगत एवं कितना अबौद्धिक है? क्या यह महावीर की वाणी, एक सर्वज्ञ की वाणी हो सकती है? जिन गंगा आदि नदियों की इंच-इंच भूमि आज
-
-
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 21
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाप ली गई है उन नदियों को आज भी लाखों मील के लंबे चौड़े विस्तार वाली बताना, क्या यह महावीर की सर्वज्ञता एवं भगवत्ता का उपहास नहीं है?
___ आज बहुत से जिज्ञासु मुझसे पूछ रहे हैं, बहुत से तर्कप्रेमी श्रावकों के प्रश्न आ रहे हैं, उनसे भी और आप सभी से मैं यह कहना चाहता हूँ कि आज हमें नये सिरे से चिन्तन करना चाहिए। यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर सत्य का सही मूल्यांकन करना चाहिए। दूध और पानी की तरह यह अलग-अलग कर देना चाहिए कि भगवान की वाणी क्या है? महावीर के वचन क्या है? एवं उसमें उत्तरकालीन विद्वानों की संकलना क्या है? यह साहस आज करना होगा, कतराने
और सकुचाने से सत्य पर पर्दा नहीं डाला जा सकेगा। आज का तर्क प्रधान युग निर्णायक उत्तर मांगता है और यह उत्तर धर्मशास्त्रों के समस्त प्रतिनिधियों को देना होगा।
मैं समझता हूँ कि आज के युग में भी आपके मन में तथाकथित शास्त्रों के अक्षर -अक्षर को सत्य मानने का व्यामोह है, तो महावीर की सर्वज्ञता को अप्रमाणित होने से आप कैसे बचा सकेंगे? यदि महावीर की सर्वज्ञता को प्रमाणित रखना है, तो फिर यह विवेकपूर्वक सिद्ध करना ही होगा कि महावीर की वाणी क्या है? शास्त्र का यथार्थ स्वरूप क्या है? और वह शास्त्र कौन-सा है? अन्यथा आनेवाली पीढी कहेगी कि महावीर को भूगोल-खगोल के संबंध में कुछ भी अता-पता नहीं था, उन्हें स्कूल के एक साधारण विद्यार्थी जितनी भी जानकारी नहीं थी ! शास्त्रों की छंटनी करनी होगी
प्रश्न उपस्थित होता है, हम कौन होते हैं, जो महावीर की वाणी की छंटनी कर सकें? हमें क्या अधिकार है कि शास्त्रों का फैसला कर सकें कि कौन शास्त्र हैं और कौन नहीं !
____ मेरा उत्तर है, हम महावीर के उत्तराधिकारी हैं, भगवान् का गौरव हमारे अन्तर्मन में समाया हुआ है, भगवान् की अपभ्राजना हम किसी भी मूल्य पर सहन नहीं कर सकते। हम त्रिकाल में भी यह नहीं मान सकते कि भगवान् ने असत्य प्ररूपणा की है। अतः जो आज प्रत्यक्ष में असत्य प्रमाणित हो रहा है, या हो सकता है, वह भगवान का वचन नहीं हो सकता इसलिए हमें पूरा अधिकार है कि यदि कोई भगवान् को, भगवान् की वाणी को चुनौती देता है तो हम
22 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथार्थ सत्य के आधार पर उसका प्रतिरोध करें, उस चुनौती का स्पष्ट उत्तर दें कि सचाई क्या है? .
विज्ञान ने हमारे शास्त्रों की प्रामाणिकता को चुनौती दी है। हमारे कुछ बुजुर्ग कहे जाने वाले विद्वान मुनिराज या श्रावक जिस ढंग से उस चुनौती का उत्तर दे रहे हैं कि असली चन्द्रमा बहुत दूर है। कुछ यह भी कहते हैं कि यह सब झूठ है, वैज्ञानिकों का, नास्तिकों का षड्यन्त्र है, केवल धर्म की निन्दा करने के लिए। -मैं समझता हूँ, इस प्रकार के उत्तर निरे मजाक के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जिस हकीकत को प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों के वैज्ञानिक भी स्वीकार कर रहे हैं, बाल की खाल उतारने वाले तार्किक भी आदर पूर्वक उसे मान्य कर रहे हैं, धरती पर रहे लाखों लोगों ने भी टेलिविजन के माध्यम से चन्द्र तक आने-जाने का दृश्य देखा है, उस प्रत्यक्ष सत्य को हम यों झूठला नहीं सकते। और न नकली-असली चन्द्रमा बताने से ही कोई बात का उत्तर हो सकता है। प्रतिरोध करने का यह तरीका गलत है, उपहासास्पद है। शास्त्रों की गरिमा को अब इस हिलती हुई दीवार के सहारे अधिक दिन टिकाया नहीं जा सकता।
मैं पूछता हूँ कि आपको शास्त्रों की परख करने का अधिकार क्यों नहीं है? कभी एक परम्परा थी, जो चौरासी आगम मानती थी, ग्रन्थों में उसके प्रमाण विद्यमान हैं। फिर एक परम्परा खड़ी हई, जो चौरासी में से छंटनी करती-करती पैंतालीस तक आ गई। भगवान महावीर के लगभग दो हजार वर्ष बाद फिर एक परम्परा ने जन्म लिया, जिसने पैंतालीस को भी अमान्य ठहराया और बत्तीस आगम माने। मैं पूछता हूँ-धर्मवीर लोंकाशाह ने, पैंतालीस आगमों में से बत्तीस छाँट लिए, क्या वे कोई बहुत बड़े श्रुतधर आचार्य थे? क्या कोई विशिष्ट प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हुआ था उन्हें? क्या उन्हें कोई ऐसी देववाणी हुई थी कि अमुक शास्त्र शास्त्र है, और अमुक नहीं फिर उन्होंने जो यह निर्णय किया और जिसे आज आप मान रहे हैं, वह किस आधार पर था? सिर्फ अपनी प्रज्ञा एवं दृष्टि से ही तो यह छंटनी उन्होंने की थी ! तो आज क्या वह प्रज्ञा और वह दृष्टि लुप्त हो गई है? आज किसी विद्वान में वह निर्णायक शक्ति नहीं रही? या साहस नहीं है? अथवा वे अपनी श्रद्धा-प्रतिष्ठा के भय से भगवद्वाणी का यह उपहास देखते हुए भी मौन हैं? मैं साहस के साथ कह देना चाहता हूँ कि आज वह निर्णायक घड़ी आ पहुँची है कि 'हाँ' या 'ना' में स्पष्ट निर्णय करना होगा।
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 23
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
पौराणिक प्रतिबद्धता एवं शाब्दिक व्यामोह को तोड़ना होगा, और यह कसौटी करनी ही होगी कि भगवद्वाणी क्या है और उसके बाद का अंश क्या है? विचार प्रतिबद्धता को तोड़िए
मैं आपसे कह देना चाहता हूँ कि किसी भी परम्परा के पास ग्रन्थ या शास्त्र कम- अधिक होने से जीवन के आध्यात्मिक विकास में कोई अंतर आने वाला नहीं है। यदि शास्त्र कम रह गए तो भी आपका आध्यात्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो सकता है, विकसित हो सकता है, और शास्त्र का अंबार लगा देने पर भी आप बहुत पिछड़े हुए रह सकते हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए जिस चिंतन और दृष्टि की आवश्यकता है, वह तो अंतर से जागृत होती है। जिसकी दृष्टि सत्य के प्रति जितनी आग्रहरहित एवं उन्मुक्त होगी, जिसका चिंतन जितना आत्ममुखीन होगा, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकेगा।
मैंने देखा है, अनुभव किया है-ग्रन्थों एवं शास्त्रों को लेकर हमारे मानस में एक प्रकार की वासना, एक प्रकार का आग्रह, जिसे हठाग्रह ही कहना चाहिए, पैदा हो गया है। आचार्य शंकर ने विवेक चूडामणि में कहा है-देह वासना एवं लोकवासना के समान शास्त्रवासना भी यथार्थ ज्ञान की प्रतिबंधक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे ही 'दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेद्यः सतामपि,'-कहकर दृष्टिरागी के लिए सत्य की अनुसंधित्सा को बहुत दुर्लभ बताया है।
हम अनेकांत दृष्टि और स्याद्वाद विचार पद्धति की बात-बात पर जो दुहाई देते हैं, वह आज के राजनीतिकों की तरह केवल नारा नहीं होना चाहिए, हमारी सत्य दृष्टि बननी चाहिए, ताकि हम स्वतंत्र, अप्रतिबद्ध प्रज्ञा से कुछ सोच सकें। जब तक दृष्टि पर से अंध-श्रद्धा का चश्मा नहीं उतरेगा, जबतक पूर्वाग्रहों के खूटे से हमारा मानस बंधा रहेगा-तब तक हम कोई भी सही निर्णय नहीं कर सकेंगे। इसलिए युग की वर्तमान परिस्थितियों का तकाजा है कि हम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर नये सिरे से सोचें ! प्रज्ञा की कसौटी हमारे पास है, और यह कसौटी भगवान महवीर एवं गणधर गौतम ने, जो स्वयं सत्य क साक्षात्द्रष्टा एवं उपासक थे, बतलाई है-"पण्णा समिक्खए धम्म23 प्रज्ञा ही धर्म की, सत्य की समीक्षा कर सकती है, उसी से तत्त्व का निर्णय किया जा सकता है।
24 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
शास्त्र- स्वर्ण की परख
प्रज्ञा एक कसौटी है, जिस पर शास्त्र रूप स्वर्ण की परख की जा सकती है। और वह परख होनी ही चाहिए। हम में से बहुत से साथी हैं, जो कतराते हैं, कि कहीं परीक्षा करने से हमारा सोना पीतल सिद्ध न हो जाए ! मैं कह देना चाहता हूँ कि इस में कतराने की कौन-सी बात है ? यदि सोना वस्तुतः सोना है, तो वह सोना ही रहेगा, और यदि पीतल है तो उस पर सोने का मोह आप कब तक किए रहेंगे? सोने और पीतल को अलग-अलग होने दीजिए- इसी में आप की प्रज्ञा की कसौटी का चमत्कार है।
जैन आगमों के महान् टीकाकार आचार्य अभयदेव ने भगवती सूत्र की टीका की पीठिका में एक बहुत बड़ी बात कही है, जो हमारे संपूर्ण भगवद् वाणी की कसौटी हो सकती है।
प्रश्न है कि आप्त कौन है? और उनकी वाणी क्या है? आप्त भगवान् क्या उपदेश करते हैं?
उत्तर में कहा गया है कि- जो मोक्ष का अंग है, मुक्ति का साधन है, आप्त भगवान् उसी यथार्थ सत्य का उपदेश करते हैं। आत्मा की मुक्ति के साथ जिसका प्रत्यक्ष या पारम्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका उपदेश भगवान् कभी नहीं करते। यदि उसका भी उपदेश करते हैं, तो उनकी आप्तता में दोष आता है। 24
यह एक बहुत सच्ची कसौटी है, जो आचार्य अभयदेव ने हमारे समक्ष प्रस्तुत की है। इससे भी पूर्व लगभग चौथी - पाँचवीं शताब्दी के महान तार्किक, जैन तत्त्वज्ञान को ~ दर्शन का रूप देने वाले आचार्य सिद्धसेन ने भी शास्त्र की एक कसौटी निश्चित् की थी
आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥25
44
“जो वीतराग - आप्त पुरुषों के द्वारा जाना परखा गया है, जो किसी अन्य वचन के द्वारा अपदस्थ - हीन नहीं किया जा सकता और जो तर्क तथा प्रमाणों से खंडित नहीं हो सकने वाले सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, जो प्राणिमात्र के कल्याण के निमित्त से सार्व अर्थात् सार्वजीनन - सर्वजन हितकारी होता है, एवं
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है ? 25
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म साधना के विरुद्ध जाने वाली विचारसरणियों का निरोध करता है- वही सच्चा शास्त्र है।"
तार्किक आचार्य ने शास्त्र की जो कसौटी की है, वह आज भी अमान्य नहीं की जा सकती। वैदिक परम्परा के प्रथम दार्शनिक कपिल एवं महान् तार्किक गौतम ने भी जब शब्द को प्रमाण कोटि में माना, तो पूछा गया शब्द प्रमाण क्या है? तो कहा-'आप्त का उपदेश शब्द प्रमाण है !' आप्त कौन? तत्त्व का यथार्थ उपदेष्टा आप्त है।26 जिसके वचन में पूर्वापर विरोध, असंगति-विसंगति नहीं होती, और जो वचन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के विरुद्ध नहीं जाता, खंडित नहीं होता-वही आप्त वचन है। आचार्य ने उक्त कथन पर से सिद्ध हो जाता है कि किसका, क्या वचन मान्य हो सकता है और क्या नहीं। जो वचन यथार्थ नहीं है, सत्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरा है, वह भले कितना ही विराट एवं विशाल ग्रंथ क्यों न हो, उसे 'आप्तवचन' कहने से इन्कार कर दीजिए। इसी में आप्त की और आपकी प्रामाणिकता है, प्रतिष्ठा है। हम स्वयं निर्णय करें
तर्क शास्त्र की ये सूक्ष्म बातें मैंने आपको इसलिए बताई हैं कि हम अपनी प्रज्ञा को जागृत करें, और स्वयं परखें कि वस्तुतः शास्त्र क्या है, उसका प्रयोजन क्या है? और फिर यह भी निर्णय करें कि जो अपनी परिभाषा एवं प्रयोजन के अनुकूल नहीं है, वह शास्त्र, शास्त्र नहीं है। उसे और कुछ भी कह सकते हैं-ग्रन्थ, रचना, कृति कुछ भी कहिए, पर हर किसी ग्रन्थ को भगवद् वाणी या आप्तवचन नहीं कह सकते।
शास्त्र की एक कसौटी, जो उत्तराध्ययन सूत्र से मैंने आपको बतलाई, जिसमें कहा गया है-तप, क्षमा एवं अहिंसा की प्रेरणा जगाकर आत्म दृष्टि को जागृत करने वाला शास्त्र है। यह इतनी श्रेष्ठ और सही कसौटी है कि इसके आध पर पर भी यदि हम वर्तमान में शास्त्र का निर्णय करें तो बहुत ही सही दिशा प्राप्त कर सकते हैं।
बहुत से जिज्ञासुओं और मेरे साथी मुनियों के समक्ष मैंने जब कभी अपने ये विचार एवं तर्क उपस्थित किए तो वे कतराने से लगते हैं, कि बात तो ठीक है, पर यह कैसे कहें कि अमुक आगम को हम शास्त्र नहीं मानते ! इससे
26 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुत हलचल मच जाएगी, श्रावकों की श्रद्धा खत्म हो जाएगी, धर्म का ह्रास हो जाएगा। मैं जब उनकी उक्त ढिचुस्त एवं भीरुता भरी बातें सुनता हूँ तो मन झुंझला उठता है-यह क्या कायरता है? यह कैसी मनोवृत्ति है हमारे मन में ! समझते हैं कि बात सही है, पर कह नहीं सकते। चूँकि लोग क्या कहेंगे? मैं समझता हूँ-इसी दब्बू मनोवृत्ति ने हमारे आदर्शों को गिराया है, हमारी संस्कृति का पतन किया है। यही मनोवृत्ति वर्तमान में पैदा हुई शास्त्रों के प्रति अनास्था एवं धर्म विरोधी भावना की जिम्मेदार है। भगवद्भक्ति या शास्त्र-मोह
बहुत वर्ष पहले की बात है, मैं देहली में था। वहाँ के लाला उमरावमलजी एक बहुत अच्छे शास्त्रज्ञ, साथ ही तर्कशील श्रावक थे। उनके साथ प्रायः अनेक शास्त्रीय प्रश्नों पर चर्चा चलती रहती थी। एक बार प्रसंग चलने पर मैंने कहा-“लालाजी ! मैं कुछ शास्त्रों के सम्बन्ध में परम्परा से भिन्न दृष्टि रखता हूँ ! मैं यह नहीं मानता कि इन शास्त्रों का अक्षर-अक्षर भगवान् ने कहा है। शास्त्रों में कुछ अंश ऐसे भी हैं, जो भगवान् की सर्वज्ञता के साक्षी नहीं हैं। भूगोल-खगोल को ही ले लीजिए ! यह सब क्या है?"
मैंने यह कहा तो लालाजी एकदम चौके और बोले - "महाराज ! आपने यह बात कैसे कही ! ऐसा कैसे हो सकता है?"
इस पर मैंने उनके समक्ष शास्त्रों के कुछ स्थल रखे, साथ ही लम्बी चर्चा की, और फिर उनसे पूछा-"क्या ये सब बातें एक सर्वज्ञ भगवान की कही हुई हो सकती है? हो सकती हैं, तो इनमें परस्पर असंगतता एवं विरोध क्यों है? सर्वज्ञ की वाणी कभी असंगत नहीं हो सकती और यदि असंगत है तो वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती।" ।
लालाजी बुजुर्ग होते हुए भी जड़ मस्तिष्क नहीं थे, श्रद्धा प्रधान होते हुए भी तर्कशून्य नहीं थे। उन्होंने लम्बी तत्त्वचर्चा के बाद अन्त में मुक्त मन से कहा-"महाराज! इन चांद-सूरज के शास्त्रों से भगवान् का सम्बन्ध जितना जल्दी तोड़ा जाये उतना ही अच्छा है। वरना इन शास्त्रों की श्रद्धा बचाने गये तो कहीं भगवान की श्रद्धा से ही हाथ न धो बैठे !"
मैं आपसे भी यही पूछना चाहता हूँ कि आप इन चन्द्र, सूर्य, सागर एवं
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 27
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुमेरु की चर्चा करने वाले शास्त्रों को महत्त्व देना चाहते हैं या भगवान् को ? आपके मन में भगवद्भक्ति का उद्रेक है या शास्त्र मोह का?
आप कहेंगे शास्त्र नहीं रहा, तो भगवान् का क्या पता चलेगा? शास्त्र ही तो भगवान् का ज्ञान कराते हैं।
बात ठीक है, शास्त्रों से ही भगवान् का ज्ञान होता है। हम आत्मा हैं और भगवान् परमात्मा हैं। आत्मा परमात्मा में क्या अन्तर है? अशुद्ध और शुद्ध स्थिति काही तो अन्तर है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही भगवान् है, भगवान् का स्वरूप है। इस प्रकार भगवान् का स्वरूप आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है । और जो शास्त्र आत्मस्वरूप का ज्ञान करानेवाला है, आत्मा से परमात्मा होने का मार्ग बताने वाला है, जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता का पथ दिखाने वाला है, वास्तव में वही धर्मशास्त्र है, और उसी धर्मशास्त्र की हमें आवश्यकता है। किन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र आत्मस्वरूप की जगह आत्म-विभ्रम का कारण खड़ा कर देता है, हमें अन्तर्मुख नहीं, अपितु बहिर्मुख बनाता है, उसे शास्त्र की कोटि में रखने से क्या लाभ है? वह तो उल्टा हमें भगवत् श्रद्धा से दूर खदेड़ता है, मन को शंकाकुल बनाता है, और प्रबुद्ध लोगों को हमारे शास्त्रों पर, हमारे भगवान् पर अंगुली उठाने का मौका देता है। आप तटस्थ दृष्टि से देखिए कि ये भूगोल - खगोल सम्बन्धी चर्चाएँ, ये चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत और समुद्र आदि के लम्बे चौड़े वर्णन करने वाले शास्त्र हमें आत्मा को बन्धन मुक्त करने के लिए क्या प्रेरणा देते हैं? आत्मविकास का कौन-सा मार्ग दिखाते हैं? इन वर्णनों से हमें तप, त्याग, क्षमा, अहिंसा आदि का कौन-सा उपदेश प्राप्त होता है? जिनका हमारी आध्यात्मिक चेतना से कोई सम्बन्ध नहीं, आत्म-साधना से जिनका कोई वास्ता नहीं, हम उन्हें शास्त्र मानें तो क्यों? उन्हें भगवद्वाणी सर्वज्ञ का उपदेश माने तो क्यों ? किस आधार पर ?
मैंने प्रारम्भ में एक बात कही थी कि जैन एवं वैदिक परंपरा के अनेक ग्रंथों का निर्माण या नवीन संस्करण ईसापूर्व की पहली शताब्दी से लेकर ईसा पश्चात् चौथी पाँचवी शताब्दी तक होता रहा है। उस युग में जो भी प्राकृत या संस्कृत में लिखा गया उसे धर्म शास्त्र की सूची में चढ़ा दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव की स्वतंत्र तर्कणा एक तरह से कुण्ठित हो गई और श्रद्धावनत होकर मानव ने हर किसी ग्रन्थ को शास्त्र एवं आप्तवचन मान लिया।
28 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारत की कोई भी परम्परा इस बौद्धिक विकृति से मुक्त नहीं रह सकी। श्रद्धाधिं क्य के कारण हो सकता है प्रारम्भ में यह भूल कोई भूल प्रतीत न हुई हो, पर आज इस भूल के भयंकर परिणाम हमारे समक्ष आ रहे हैं। भारत की धार्मिक प्रजा आज उन तथाकथित धर्मशास्त्रों की जकड़ में इस प्रकार प्रतिबद्ध हो गई है कि न कुछ पकड़ते बनता है और न कुछ छोड़ते बनता है।
मेरा यह कथन शास्त्र की अवहेलना या अप्रभाजना नहीं, किन्तु एक सत्य हकीकत है, जिसे जानकर, समझकर हम शास्त्र के नाम पर अन्ध-शास्त्र प्रतिबद्धता से मुक्त हो जाएँ। जैसा मैंने कहा-शास्त्र तो सत्य का उद्घाटक होता है, असत्य धारणाओं का संकलन शास्त्र नहीं होता। मैं तत्त्वद्रष्टा ऋषियों की वाणी को पवित्र मानता हूँ, महाश्रमण महावीर की वाणी को आत्म-स्पर्शी मानता हूँ इसलिए कि वह सत्य है, ध्रुव है। किन्तु उनके नाम पर रचे गये ग्रन्थों को, जिनमें कि अध्यात्म चेतना का कुछ भी स्पर्श नहीं है, सत्यं, शिवं की साक्षात् अनुभूति नहीं है, मैं शास्त्र नहीं मानता।
___कुछ मित्र मुझे अर्धनास्तिक कहते हैं, मिथ्यात्वी भी कहते हैं, मैं कहता हूँ अर्धनास्तिक का क्या मतलब? पूरा ही नास्तिक क्यों न कह देते? अगर सत्य का उद्घाटन करना और उसे मुक्त मन से स्वीकार कर लेना, नास्तिकता है, तो वह नास्तिकता अभिशाप नहीं, वरदान है।
मेरा मन महावीर के प्रति अटूट श्रद्धा लिए हुए है, सत्य द्रष्टा ऋषियों के प्रति एक पवित्र भावना लिए हुए है, और यह श्रद्धा ज्यों-ज्यों चिंतन की गहराई का स्पर्श करती है, त्यों-त्यों अधिक प्रबल, अधिक दृढ़ होती जाती है। मैं आज भी उस.परम ज्योति को अपने अन्तरंग में देख रहा हूँ और उस पर मेरा मन सर्वतोभावेन समर्पित हो रहा है। भगवान् मेरे लिए ज्योति स्तम्भ हैं, उनकी वाणी का प्रकाश मेरे जीवन के कण-कण में समाता जा रहा है। किन्तु भगवान् की वाणी क्या है, और क्या नहीं, यह मैं अपने अन्तर्विवेक के प्रकाश में स्पष्ट देखकर चल रहा हूँ। भगवान् की वाणी वह है, जो अन्तर में सत्य श्रद्धा की ज्योति जगाती है, अन्तर में सुप्त ईश्वरत्व को प्रबुद्ध करती है, हमारी अन्तश्चेतना को व्यापक एवं विराट् बनाती है। भगवद् वाणी की स्फुरणा आत्मा की गति-प्रगति से सम्बन्धित है, सूर्य, चन्द्र आदि की गति से नहीं। सोने-चाँदी के पहाड़ों की ऊँचाई-नीचाई से नहीं, नदी नालों एवं समुद्रों की गहराई-लम्बाई से नहीं। ऋषियों
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 29
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
की वाणी विश्वमैत्री एवं विराट् चेतना की प्रतिनिधि है, उसमें वर्ग संघर्ष, जाति- विद्वेष एवं असत्कल्पनाओं के स्वर नहीं हो सकते । भगवान् की वाणी में जो शाश्वत सत्य का स्वर मुखरित हो रहा है, उसको कोई भी विज्ञान, कोई भी प्रयोग चुनौती नहीं दे सकता, कोई भी सत्य का शोधक उसकी अवहेलना नहीं कर सकता । किन्तु हम इस अज्ञान में भी नहीं रहें कि भगवान् की वाणी के नाम पर, आप्तवचनों के नाम पर, आज जो कुछ भी लिखा हुआ प्राप्त होता है, वह सब कुछ साक्षात् भगवान् की वाणी है, जो कुछ लिपिबद्ध है वह अक्षर-अक्षर भगवान् का ही कहा हुआ है। प्राकृत एवं अर्धमागधी के हर किसी ग्रन्थ पर महावीर की मुद्रा लगा देना, महावीर की भक्ति नहीं, अवहेलना है। यदि हम सच्चे श्रद्धालु हैं, भगवद् भक्त हैं, तो हमें इस अवहेलना से मुक्त होना चाहिए। और यह विवेक कर लेना चाहिए कि जो विचार, जो तथ्य, जो वाणी सिर्फ भौतिक जगत् के विश्लेषण एवं विवेचना से संबंधित है, साथ ही प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित भी है, वह भगवान् की वाणी नहीं है, वह हमारा मान्य शास्त्र नहीं है। हाँ, वह आचार्यों द्वारा रचित या संकलित ग्रन्थ, काव्य या साहित्य कुछ भी हो सकता है, किन्तु शास्त्र नहीं ।
मैं समझता हूँ मेरी यह बात आपके हृदय में मुश्किल से उतरेगी। आप गहरा ऊहापोह करेंगे, कुछ तो मुझे कुछ का कुछ भी कहेंगे । इसकी मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है। सत्य है कि आज के उलझे हुए प्रश्नों का समाधान इसी दृष्टि से हो सकता है। मैंने अपने चिन्तन-मनन से समाधान पाया है, और अनेक जिज्ञासुओं को भी दिया है, मैं तो मानता हूँ कि इसी समाधान के कारण आज भी मेरे मन में महावीर एवं अन्य ऋषि मुनियों के प्रति श्रद्धा का निर्मल स्रोत उमड़ रहा है मेरे जीवन का कण-कण आज भी सहज श्रद्धा के रस से आप्लावित हो रहा है। और मैं तो सोचता हूँ, मेरी यह स्थिति उन तथाकथित श्रद्धालुओं से अधिक अच्छी है जिनके मन में तो ऐसे कितने ही प्रश्न संदेह में उलझ रहे हैं, किन्तु वाणी में शास्त्र श्रद्धा की धुंआधार गर्जना हो रही है। जिनके मन में केवल परम्परा के नाम पर ही कुछ समाधान हैं, जिनकी बुद्धि पर इतिहास की अज्ञानता के कारण विवेकशून्य श्रद्धा का आवरण चढ़ा हुआ है, उनकी श्रद्धा कल टूट भी सकती है, और न भी टूटे तो कोई उसकी श्रेयस्कता मैं नही समझता । किन्तु विवेकपूर्वक जो श्रद्धा जगती है, चिन्तन से स्फुरित होकर जो ज्योति प्रकट होती
30 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
है, उसी का अपने और जगत् के लिए कुछ मूल्य है। उस मूल्य की स्थापना आज नहीं तो कल होगी, अवश्य होगी। संदर्भ :
1. चंद्रप्रज्ञप्ति 18/3 2. जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति, ज्योतिष चक्राधिकार 8 3. चंद्रप्रज्ञप्ति 20/2 4. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्योतिष चक्राधिकार 5. चन्द्रप्रज्ञप्ति 20/14 6. निरुक्त 2/11 7. साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभूवुः। निरुक्त 1/20 8. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 1384
शासु-अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम् टीका 9. उत्तराध्ययन 3/1 10. उत्तराध्ययन 3/8 11. प्रश्न व्याकरण 2/1 12. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्। स्वयंभूस्तोत्र 13. प्रश्न व्याकरण 2/1-7 14. योगबिन्दु प्रकरण 2/9 15. यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा। __ यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।।
-मनुस्मृति 5/39 16. वाल्मीकि रामायण (शुनः शेप) बालकाण्ड, सर्ग 62 17. वसिष्ठ धर्मसूत्र 4/3 18. यस्तु छायां श्वपाकस्य ब्राह्मणो ह्यधिरोहति।
तत्र स्नानं प्रकुर्वीत घृतं प्रास्य विशुध्यति।।
अत्रि. 288-289, याज्ञ. 2/30 (मिताक्षरा में उद्धृत) 19. महा. अनु. 38/12 20. बौद्धान् पाशुपतांश्चैव लोकायतिकनास्तिकान्।
विकर्मस्थान् द्विजान् स्पृष्ट्वा सचैलो जलमाविशेत्।। -स्मृतिचंद्रिका पृ.118 21. (क) दिग्विजय पर्व, संभवतः 176 ई.पू. से पहले का है।
-भा. इ. रू. पृ. 1003
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? 31
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________ (ख) महाभारत का वर्तमान संस्करण सातवाहन युग में तैयार हुआ। (ई.पू. 1 ई. तक) भा. इ. रू..पृ.1003 22. मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति सातवाहन युग की कृति है। -भारतीय इतिहास की रूपरेखा (जयचन्द्र विद्यालंकार) भा. 2/पृ. 1001 23. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ज्योतिषचक्राधिकार, चंद्र ऋद्धि वर्णन। 23. उत्तरा. 23/25 24. नहि आप्तः साक्षाद् पारंपर्येण वा यन्न मोक्षाङ्गं तद् प्रतिपादयितुमुत्सहते अनाप्तत्वप्रसंगात्। ___ -आचार्य अभयदेव, भगवती वृत्ति 1/1/ 25. न्यायावतार 9 26. आप्तोपदेशः शब्दः -सांख्यदर्शन 1/101 -न्यायदर्शन 1/1/7 आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापययिषा प्रयुक्त उपदेष्टा..... 32 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प