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________________ की वाणी विश्वमैत्री एवं विराट् चेतना की प्रतिनिधि है, उसमें वर्ग संघर्ष, जाति- विद्वेष एवं असत्कल्पनाओं के स्वर नहीं हो सकते । भगवान् की वाणी में जो शाश्वत सत्य का स्वर मुखरित हो रहा है, उसको कोई भी विज्ञान, कोई भी प्रयोग चुनौती नहीं दे सकता, कोई भी सत्य का शोधक उसकी अवहेलना नहीं कर सकता । किन्तु हम इस अज्ञान में भी नहीं रहें कि भगवान् की वाणी के नाम पर, आप्तवचनों के नाम पर, आज जो कुछ भी लिखा हुआ प्राप्त होता है, वह सब कुछ साक्षात् भगवान् की वाणी है, जो कुछ लिपिबद्ध है वह अक्षर-अक्षर भगवान् का ही कहा हुआ है। प्राकृत एवं अर्धमागधी के हर किसी ग्रन्थ पर महावीर की मुद्रा लगा देना, महावीर की भक्ति नहीं, अवहेलना है। यदि हम सच्चे श्रद्धालु हैं, भगवद् भक्त हैं, तो हमें इस अवहेलना से मुक्त होना चाहिए। और यह विवेक कर लेना चाहिए कि जो विचार, जो तथ्य, जो वाणी सिर्फ भौतिक जगत् के विश्लेषण एवं विवेचना से संबंधित है, साथ ही प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित भी है, वह भगवान् की वाणी नहीं है, वह हमारा मान्य शास्त्र नहीं है। हाँ, वह आचार्यों द्वारा रचित या संकलित ग्रन्थ, काव्य या साहित्य कुछ भी हो सकता है, किन्तु शास्त्र नहीं । मैं समझता हूँ मेरी यह बात आपके हृदय में मुश्किल से उतरेगी। आप गहरा ऊहापोह करेंगे, कुछ तो मुझे कुछ का कुछ भी कहेंगे । इसकी मुझे कुछ भी चिन्ता नहीं है। सत्य है कि आज के उलझे हुए प्रश्नों का समाधान इसी दृष्टि से हो सकता है। मैंने अपने चिन्तन-मनन से समाधान पाया है, और अनेक जिज्ञासुओं को भी दिया है, मैं तो मानता हूँ कि इसी समाधान के कारण आज भी मेरे मन में महावीर एवं अन्य ऋषि मुनियों के प्रति श्रद्धा का निर्मल स्रोत उमड़ रहा है मेरे जीवन का कण-कण आज भी सहज श्रद्धा के रस से आप्लावित हो रहा है। और मैं तो सोचता हूँ, मेरी यह स्थिति उन तथाकथित श्रद्धालुओं से अधिक अच्छी है जिनके मन में तो ऐसे कितने ही प्रश्न संदेह में उलझ रहे हैं, किन्तु वाणी में शास्त्र श्रद्धा की धुंआधार गर्जना हो रही है। जिनके मन में केवल परम्परा के नाम पर ही कुछ समाधान हैं, जिनकी बुद्धि पर इतिहास की अज्ञानता के कारण विवेकशून्य श्रद्धा का आवरण चढ़ा हुआ है, उनकी श्रद्धा कल टूट भी सकती है, और न भी टूटे तो कोई उसकी श्रेयस्कता मैं नही समझता । किन्तु विवेकपूर्वक जो श्रद्धा जगती है, चिन्तन से स्फुरित होकर जो ज्योति प्रकट होती 30 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212398
Book TitleKya Shastro Ko Chunoti Di Ja Sakti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf
Publication Year2009
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size1 MB
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