Book Title: Kundkunda Shatak
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 4
________________ १० (कुन्दकुन्द शतक ( ९ ) सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो । जाणतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि । । जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो । जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ।। शुद्धात्मा को जानता हुआ अर्थात् शुद्धात्मा का अनुभव करता हुआ शुद्धात्मा को प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्मा को जानता हुआ - अनुभवता हुआ जीव अशुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव में अपनापन स्थापित करनेवाला शुद्धता को प्राप्त करता है और अशुद्ध स्वभाव में अपनापन स्थापित करनेवाला अशुद्ध रहता है। ( १० ) आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है । हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।। आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है । ज्ञेय तो सम्पूर्ण श्लोकालोक है। यही कारण है कि लोकालोकरूप ज्ञेय को जानने वाले ज्ञान को भी सर्वगत कहा गया है। यद्यपि आत्मा अपने असंख्य प्रदेशों से बाहर नहीं जाता, तथापि सब को जानने वाला होने से सर्वगत कहा जाता है। ( ११ ) दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताण पुण जाण तिणवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा । ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ।। साधु पुरुषों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र का नित्य सेवन करना चाहिए; क्योंकि उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो । १०. प्रवचनसार, गाथा २३ ९. समयसार, गाथा १८६ ११. समयसार, गाथा १६ 7 कुन्दकुन्द शतक) ११ ( १२-१३ ) जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ।। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो । अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।। 'यह नृपति है' यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें। अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ।। यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए । अति प्रीति से अनुचरण करिये प्रीति से पहिचानिए || जिस प्रकार कोई धनार्थी पुरुष राजा को जानकर उसका श्रद्धान करता है और उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है; उसी प्रकार मुमुक्षुओं को जीवरूपी राजा को जानना चाहिये, उसका श्रद्धान करना चाहिए एवं उसी का अनुचरण भी करना चाहिए, उसी में तन्मय हो जाना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आत्मार्थियों को सर्वप्रथम निज भगवान आत्मा को जानना चाहिए, फिर यह श्रद्धान करना चाहिए कि यह भगवान आत्मा मैं ही हूँ । इसके पश्चात् उसी में लीन हो जाना चाहिए, क्योंकि निज भगवान आत्मा का ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान ही निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र है। ( १४ ) जो इच्छइ णिस्सरिदुं संसारमहण्णवाउ रूद्दाओ । कधिणाण डहणं सो झायड़ अप्पयं सुद्धं ॥ जो भव्यजन संसार सागर पार होना चाहते। वे कर्म ईंधन - दहन निज शुद्धातमा को ध्यावते ।। जो जीव भयंकर संसाररूपी समुद्र से पार होना चाहते हैं, वे जीव कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले अपने शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं; क्योंकि शुद्धात्मा के ध्यानरूपी अग्नि ही कर्मरूपी ईंधन को जलाने में समर्थ होती है। अतः मुमुक्षु का एकमात्र परम कर्तव्य निज शुद्धात्मा का ध्यान ही है। १३. समयसार, गाथा १८ १२. समयसार, गाथा १७ १४. अष्टपाहुड, गाथा २६

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