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(कुन्दकुन्दशतक
कुन्दकुन्द शतक)
सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि। सुई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ।। डोरा सहित सुइ नहीं खोती गिरे चाहे वन भवन।
संसार-सागर पार हों जिनसत्र के ज्ञायक श्रमण ।। जिसप्रकार सूत्र (डोरा) सहित सुई खोती नहीं है, सूत्र रहित खो जाती है; उसी प्रकार सूत्र (शास्त्र) सहित श्रमण नाश को प्राप्त नहीं होते। सूत्रों को जानने वाले श्रमण संसार का नाश करते हैं; क्योंकि संसार के नाश और मुक्ति प्राप्त करने का उपाय सूत्रों (शास्त्रों) में ही बताया गया है।
(६४) जिणसत्थादो अछे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ।। तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से।
दृगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए।। जिनशास्त्रों के द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को जानने वालों के नियम से मोह का नाश हो जाता है; इसलिए शास्त्रों का अध्ययन अच्छी तरह से अवश्य करना चाहिए।
(६५) सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं । जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ।। जिन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्यय सहित।
जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधे स्वहित।। विचित्र गुण-पर्यायों से सहित सभी पदार्थ आगमसिद्ध हैं। श्रमणजन उन पदार्थों को आगम के अभ्यास से ही जानते हैं। तात्पर्य यह है कि क्षेत्र व काल से दूरवर्ती एवं सूक्ष्म पदार्थ केवलज्ञान बिना प्रत्यक्ष नहीं जाने जा सकते; अतः वे क्षयोपशम ज्ञानी मुनिराजों द्वारा आगम से ही जाने जाते हैं। ६३. अष्टपाहुड : सूत्रपाहुड, गाथा ३
६४. प्रवचनसार, गाथा ८६ ६५. प्रवचनसार, गाथा २३५
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा। स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं।
भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है।। सच्चा श्रमण वही है, जिसे अपने आत्मा की एकाग्रता प्राप्त हो । एकाग्रता उसे ही प्राप्त होती है, जिसने पदार्थों का निश्चय किया हो । पदार्थों का निश्चय आगम से होता है; अतः आगम में चेष्टा ही ज्येष्ठ है। तात्पर्य यह कि आगम का अभ्यास आवश्यक, अनिवार्य और श्रेष्ठ कर्त्तव्य है।
(६७) आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । अविजाणतो अत्थे खवेदि कम्मणि किंध भिक्खू।। जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्वपर को नहिं जानते।
वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्वपर को नहिं जानते? ।। आगम-हीन श्रमण आत्मा को और पर को नहीं जानता है। पदार्थों को नहीं जानने वाला श्रमण कर्मों का नाश किसप्रकार कर सकता है?
(६८) पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहिं सासणे भणियं। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।।
व्रत सहित पूजा आदि सब जिन धर्म में सत्कर्म हैं।
दृगमोह - क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म हैं।। जिन शासन में जिनेन्द्रदेव ने इसप्रकार कहा है कि पूजादि करना एवं व्रत धारण करना पुण्य ही है और मोह (मिथ्यात्व) व क्षोभ (राग-द्वेष) से रहित आत्मा का परिणाम धर्म है। तात्पर्य यह है कि शुभभाव पुण्य है और शुद्धभाव (वीतराग भाव) धर्म है। ६६. प्रवचनसार, गाथा २३२
६७. प्रवचनसार, गाथा २३३ ६८. अष्टपाहुड : भावपाहुड, गाथा ८३