Book Title: Kundkunda Shatak
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ (कुन्दकुन्दशतक (८१) पव्वज्जहीणगहिणं णेहं सीसम्मि वट्टदे बहुसो । आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। श्रावकों में शिष्यगण में नेह रखते श्रमण जो। हीन विनयाचार से वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ।। जो भेषधारी दीक्षा रहित गृहस्थों और शिष्यों में बहुत स्नेह रखता है और मुनि के योग्य आचरण तथा विनय से विहीन होता है; वह श्रमण नहीं, पशु है, अज्ञानी है। अतः न तो गृहस्थों में स्नेह रखना चाहिए और न दीक्षित शिष्यवर्ग कुन्दकुन्द शतक) (८४) रत्तो बन्धदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ।। विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधे कर्म को। जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ।। रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य-सम्पन्न जीव कर्मों से छूटता है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है; अतः हे भव्यजीवो ! शुभाशुभ कर्मों में राग मत करो। (८५) परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छति । संसारगमणहेतुं पि मोक्खहेतुं अजाणंता ।। परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते । अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ।। जो जीव वीतरागभाव रूप मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं तथा संसारपरिभ्रमण का हेतु होने पर भी अज्ञान से पुण्य को मोक्षमार्ग मानकर चाहते हैं, वे जीव परमार्थ से बाहर हैं। तात्पर्य यह है कि उन्हें कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। मेंही। दसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देदि वीसट्ठो। पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।। पार्श्वस्थ से भी हीन जो विश्वस्त महिला वर्ग में। रत ज्ञान दर्शन चरण दें वे नहीं पथ अपवर्ग में ।। जो साधु वेष धारण करके महिलाओं में विश्वास उत्पन्न करके उन्हें दर्शन-ज्ञान-चारित्र देता है, उन्हें पढ़ाता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता हैइसप्रकार उनमें प्रवर्त्तता है; वह तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रकट भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है। (८३) धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमेत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो ।। धर्म से हो लिंग केवल लिंग से न धर्म हो । समभाव को पहिचानिये द्रवलिंग से क्या कार्य हो? || धर्मसहित तो लिंग होता है, परन्तु लिंगमात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए हे भव्यजीव ! तू भावरूप धर्म को जान, केवल लिंग से तेरा क्या कार्य सिद्ध होता है? तात्पर्य यह है कि अंतरंग निर्मल परिणामों सहित लिंग धारण करने से ही धर्म की प्राप्ति होती है। ८१. अष्टपाहुड : लिंगपाहुड, गाथा २ ८२. अष्टपाड : लिंगपाहुड, गाथा १८ ८३. अष्टपाहुड : लिंगपाहुड, गाथा २० कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।। सुशील है शुभकर्म और अशुभ करम कशील है। संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं? ।। अज्ञानीजनों को सम्बोधित करते हुए आचार्य कहते हैं कि तुम ऐसा जानते हो कि शुभकर्म सुशील हैं और अशुभकर्म कुशील है, पर जो शुभाशुभ कर्म संसार में प्रवेश कराते हैं, उनमें से कोई भी कर्म सुशील कैसे हो सकता है? तात्पर्य यह है कि शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म कुशील ही हैं, कोई भी कर्म सुशील नहीं होता। ८४. समयसार, गाथा १५० ८५. समयसार, गाथा १५४ ८६. समयसार, गाथा १४५

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