________________ (कुन्दकुन्द शतक कुन्दकुन्द शतक) जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं / सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं / / द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो / / जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से एवं पर्यायरूप से जानता है. वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि मोह के नाश का उपाय अपने आत्मा को जानना-पहिचानना है और अपना आत्मा अरहंत भगवान के आत्मा के समान है; अतः द्रव्यगुण-पर्याय से अरहंत भगवान का स्वरूप जानना मोह के नाश का उपाय है। (100) सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा। किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं / / सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी। सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी।। सभी अरहंत भगवान इसी विधि से कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और सभी ने इसीप्रकार मोक्षमार्ग का उपदेश दिया है, उन सभी अरहंतों को मेरा नमस्कार हो। (101) सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं / सद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स / / है ज्ञान दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है। हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है।। शुद्ध को ही श्रामण्य कहा है, शुद्ध को ही दर्शन-ज्ञान कहा है और शुद्ध को ही निर्वाण होता है। तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोगी श्रमण मुक्ति को प्राप्त करता है। मुक्त जीव ही सिद्ध कहलाते हैं। अतः सभी सिद्धों को मेरा बारंबार नमस्कार हो। 99. प्रवचनसार, गाथा 80 100. प्रवचनसार, गाथा 82 101. प्रवचनसार, गाथा 274