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(कुन्दकुन्द शतक
कुन्दकुन्दशतक)
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।। सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही।
कैसे बचावे वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं? ।। जीव आयुकर्म के उदय से जीता है - ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं । पर-जीव तुझे आयुकर्म तो देते नहीं हैं तो उन्होंने तेरा जीवन (रक्षा) कैसे किया?
(५२) जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।। मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को।
यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो? ।। जो यह मानता है कि मैं परजीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ, वह मूढ़ है, अज्ञानी है। ज्ञानी इससे विपरीत मानता है। ज्ञानी जानता है कि लौकिक सुख व दुःख तो जीवों को अपने पुण्य-पाप के अनुसार होते हैं, वे तो उनके स्वयं के कर्मों के फल हैं। उनमें किसी दूसरे जीव का रंचमात्र भी कर्त्तत्व नहीं है।
(५४) मरदु व जियदुव जीवो अयदाचारस्य णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। प्राणी मरें या न मरें हिंसा अयत्नाचार से।
तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ।। जीव मरे चाहे न मरे, पर अयत्नाचार प्रवृत्ति वाले के हिंसा होती ही है। यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले के मात्र बाह्य हिंसा से बंध नहीं होता । तात्पर्य यह है कि बंध का सम्बन्ध जितना अनर्गलप्रवृत्ति से है, उतना जीवों के मरनेजीने से नहीं । अतः बंध से बचने के लिए अनर्गलप्रवृत्ति से बचना चाहिए।
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ।। उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त सत् सत् द्रव्य का लक्षण कहा।
पर्याय-गणमय द्रव्य है - यह वचन जिनवर ने कहा।। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त सत् जिसका लक्षण है और जिसमें गुण व पर्यायें पाई जाती हैं, उसे सर्वज्ञ भगवान द्रव्य कहते हैं । तात्पर्य यह है कि द्रव्य का लक्षण सत् है और सत् उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है। अथवा गुण और पर्यायवाली वस्तु को द्रव्य कहते हैं।
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।। मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से।
यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से ।। जीवों को मारो अथवा न मारो, कर्मबंध तो मात्र अध्यवसान (मोह-रागद्वेष) से ही होता है। निश्चयनय से जीवों के बंध का स्वरूप संक्षेप में यही है।
बंध का संबंध पर-जीवों के जीवन-मरण से न होकर जीव के स्वयं के मोह-राग-द्वेष परिणामों से है। अतः बंध से बचने के लिए परिणामों की संभाल अधिक आवश्यक है। ५१. समयसार, गाथा २५२
५२. समयसार, गाथा २५३ ५३. समयसार, गाथा २६२
पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि। दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूवेंति ।। पर्याय बिन ना द्रव्य हो ना द्रव्य बिन पर्याय ही।
दोनों अनन्य रहे सदा - यह बात श्रमणों ने कही। जैन श्रमण कहते हैं कि पर्यायों के बिना द्रव्य नहीं होता और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं होती, क्योंकि दोनों में अनन्यभाव है।
५५. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १०
५४. प्रवचनसार, गाथा २१७ ५६. पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा १२