Book Title: Kundkunda Shatak Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ (कुन्दकुन्द शतक कुन्दकुन्द शतक) (४२) अस्संजदं ण वन्दे वत्थविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। असंयमी न वन्द्य है दृगहीन वस्त्रविहीन भी। दोनों ही एक समान हैं दोनों ही संयत हैं नहीं।। असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए । इसीप्रकार यदि भावसंयम नहीं है, पर बाहर से वस्त्रादि त्यागकर द्रव्यसंयम धारण कर लिया है तो वह भी वंदनीय नहीं है; क्योंकि असली संयम के अभाव में दोनों ही समान रूप से अवंदनीय है। (३९) जे दसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दसणधराणं । ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।। चाहें नमन दृगवंत से पर स्वयं दर्शनहीन हों। है बोधिदुर्लभ उन्हें भी वे भी वचन-पग हीन हों ।। जो पुरुष स्वयं सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, पर अन्य सम्यग्दृष्टियों से अपने पैर पुजवाते हैं या पुजवाना चाहते हैं, वे परभव में लूले और गूंगे होते हैं, उन्हें भी बोधि (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की प्राप्ति दुर्लभ है। यहाँ आचार्यदेव लूले और गूंगे कह कर यह कहना चाहते हैं कि वे एकेन्द्रिय पेड़-पौधे होंगे, जहाँ चलना-फिरना और बोलना संभव नहीं होगा। (४०) सम्मत्तविरहियाणं सुठ्ठ वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ।। यद्यपि करें वे उग्र तप शत-सहस-कोटी वर्ष तक। पर रतनत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व-विरहित साधु सब ।। जो मुनि सम्यग्दर्शन से रहित हैं, वे हजार करोड़ (दश अरब) वर्ष तक भलीभाँति उग्र तप करें, तब भी उन्हें बोधि (रत्नत्रय) की प्राप्ति नहीं होती है। (४१) जह मूलम्मि विणढे दुमस्स परिवार णत्थि परवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिझंति ।। जिसतरह द्रुम परिवार की वृद्धि न हो जड़ के बिना। बस उसतरह ना मुक्ति हो जिनमार्ग में दर्शन बिना ।। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ के नष्ट हो जाने पर उसके परिवार (तना, शाखा, पत्र, पुष्प, फूल आदि) की वृद्धि नहीं होती; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट मुनि मूल से ही विनष्ट हैं; अतः उन्हें मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। ३९. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा १२ ४०. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा ५ ४१. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा १० ण वि देहो वंदिज्जइण वि य कुलोण वि यजाइसंजुत्तो। को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेय सावओ होइ।। ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की। कोई करे क्यों वंदना गुण-हीन श्रावक-साधु की।। न तो देह वंदनीय है, न कुल वंदनीय है और न जाति ही वंदनीय है। गुणहीनों की वंदना कौन करे? क्योंकि गुणहीन न तो सच्चे श्रावक ही होते हैं और न सच्चे श्रमण ही। (४४) कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकंच कम्म णोकम्म। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।। मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी । यह मान्यता जब तक रहे अज्ञानि हैं तब तक सभी।। जब तक इस आत्मा की ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों, मोह-राग-द्वेषादि भावकर्मों एवं शरीरादि नोकर्मों में आत्मबुद्धि रहेगी अर्थात् “यह मैं हूँ और कर्म-नोकर्म मुझमें हैं" - ऐसी बुद्धि रहेगी, ऐसी मान्यता रहेगी, तब तक यह आत्मा अप्रतिबुद्ध है। तात्पर्य यह है कि शरीरादि परपदार्थों एवं मोहादि विकारी पर्यायों में अपनापन ही अज्ञान है। ४२. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा २६ ४३. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा२७ ४४. समयसार, गाथा १९Page Navigation
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