Book Title: Kundkunda Shatak
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 8
________________ १८ (कुन्दकुन्द शतक ( ३३ ) जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ जो सो रहा व्यवहार में वह जागता निज कार्य में । जो जागता व्यवहार में वह सो रहा निज कार्य में ।। जो योगी व्यवहार में सोता है, वह अपने स्वरूप की साधना के काम में जाता है और जो व्यवहार में जागता है, वह अपने काम में सोता है। स्वरूप की साधना ही निश्चय से आत्मा का कार्य है। अतः साधुजन व्यर्थ के व्यवहार में न उलझ कर एकमात्र अपने आत्मा की साधना करते हैं । ( ३४ ) एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण । णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।। इस ही तरह परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की । निश्चयनयाश्रित श्रमणजन प्राप्ति करें निर्वाण की ।। इसप्रकार निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय को निषिद्ध (निषेध कर दिया गया) जानो, क्योंकि निश्चयनय का आश्रय लेनेवाले मुनिराज ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं। व्यवहारनय निश्चयनय का प्रतिपादक होता है और निश्चयनय व्यवहारनय का निषेधक इन दोनों नयों में ऐसा ही संबंध है। (३५) दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो ।। सद्धर्म का है मूल दर्शन जिनवरेन्द्रों ने कहा । हे कानवालो सुनो दर्शन - हीन वंदन योग्य ना ।। जिनवरदेव ने अपने शिष्यों से कहा कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। अतः हे जिनवरदेव के शिष्यों ! कान खोलकर सुन लो कि सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति वंदना करने योग्य नहीं है। ३३. अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड, गाथा ३१ ३५. अष्टपाहुड दर्शनपाहुड, गाथा ४२ ३४. समयसार, गाथा २७२ 11 कुन्दकुन्द शतक) १९ ( ३६ ) जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य । एदे भट्ट वि भट्ठा सेसं जणं विणासंति ।। जो ज्ञान-दर्शन- भ्रष्ट हैं चारित्र से भी भ्रष्ट हैं । वे भ्रष्ट करते अन्य को वे भ्रष्ट से भी भ्रष्ट हैं ।। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट हैं एवं सम्यक्चारित्र से भ्रष्ट हैं; भ्रष्टों में भ्रष्ट हैं। ऐसे लोग स्वयं तो नष्ट है ही, अन्य जनों को भी नष्ट करते हैं; अतः ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए। ( ३७ ) दंसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा च सिज्झति ।। दृग - भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना । हों सिद्ध चारित्र - भ्रष्ट पर दृग-भ्रष्ट को निर्वाण ना ।। जो पुरुष सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं; उनको निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं, परन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते। तात्पर्य यह है कि चारित्र की अपेक्षा श्रद्धा का दोष बड़ा माना गया है। ( ३८ ) जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण । सिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं || जो लाज गारव और भयवश पूजते दृग-भ्रष्ट को । की पाप की अनुमोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो ।। 'ये साधु सम्यग्दर्शन - भ्रष्ट हैं' ऐसा जानकर भी जो पुरुष लज्जा, गौरव व भय से उनके पैरों में पड़ते हैं, पाप की अनुमोदना करने वाले होने से उन्हें भी बोधि (सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र) नहीं है। ३७. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा ३ ३६. अष्टपाहुड दर्शनपाहुड, गाथा ८ ३८. अष्टपाहुड : दर्शनपाहुड, गाथा १३

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