Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Kumar Swami
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 12
________________ Xill भविष्यवक्ता, निमित्तमानी बोमजीका ज्योतिष-संबंधी ज्ञान भी प्रखर था। वे जन्मकुंडली, वर्षफल एवं अन्य चिह्न देख कर भविष्यकी सूचना कर देते थे। बी जूठाभाई ( एक समक्ष ) के भरणके बारेमें उम्होंने सवा दो मास पूर्व स्पष्ट बता दिया था। एक बार सं० १९५५ की चैत्र बदी ८ को मोरबी में दोपहरके ४ बजे पूर्व दिशाके आकाश काले धादक देखे और उन्हें दुष्काल पड़नेका निमित्त जानकर उन्होंने कहा-"ऋतुको सन्निपात हुआ है।" तदनुसार सं० १९५५ का चौमासा कोरा रहा और सं. १९५६ में भयंकर दुष्काल पहा । श्रीमदनी दूसरेके मनकी बातको भी सरलतासे जान लेते थे। यह सब उनकी निर्मल आरमशक्तिका प्रभाव था। कवि शेक्षक श्रीमद्जीमें, अपने विचारोंकी अभिव्यक्ति पद्यरूपमें करनेको सहज क्षमता थी। उन्होंने 'स्त्रीनीतिबोधक', 'सयोधशतक', आर्यप्रजानो पहती' 'इन्नरकला धारवा विषे' आदि अनेक कविताएँ केवल आठ वर्षकी वयमें लिखी यौं। नौ वर्षकी आयुमें उन्होंने रामायण और महाभारतकी भी पद्य-रचना की थी जो प्राप्त न हो सकी। इसके अतिरिक्त जो उनका मूल विषय आत्मज्ञान था उसमें उनकी अनेक रचनाएँ है । प्रमुखरूप आत्मसिवि, अमूल्य स्वामकार, मकिना वास दोहरा' 'परमपदप्राप्शिनी भावना (अपूर्व अवसर )', 'मूलमार्ग-रहस्य', 'तृष्णानी विचित्रता' है। 'आत्मसिद्धि-शास्त्र के १४२ दोहोंकी रचना तो श्रीमजीने मात्र डेढ़ घंटेमें नडियादमें आश्विन वदी १ (गजराती) सं० १९५२ को २९ वर्षकी उममें की थी। इसमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत : पदोंका बहुत ही सुन्दर पक्षपातरहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है। इसके अंग्रेजीमें भी गद्य पधात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं। गद्य-लेखनमें श्रीमदजीने 'पुष्पमाला', 'भावनाबोष' और 'मोक्षमालाकी रचना की। इसम 'मोक्षमाला' तो उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे उन्होंने १६ वर्ष ५ मासकी आयु में मात्र तीन दिनमें लिखी थी। इसमें १०८ शिक्षापाठ है। आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता जबकि श्रीमद्बीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली। पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । 'मोक्षमाला'के संबंध में श्रीमदजी लिखते हैं--"जैनधर्मको यथार्थ समझानेका उसमें प्रयास किया है; जिनोक्त मार्गसे कुछ भी म्यूनाषिक उसमें नहीं कहा है। बीतराग मार्गमें आबालवृद्धको रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसके बीजका हृदयमें रोपण हो, इस हेतुसे इसकी बालापयोधरूप योजना की है।" श्री कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचास्तिकाय' ग्रंथकी मूल माथाओंका श्रीमद्जीने अविकल (अक्षरशः ) गुजराती अनुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर वह अपूर्ण रह गया है। फिर भी इतमे से, श्रीमदजीको विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल का जाता है। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने-समझाने में श्रीमदजीकी निपुणता अजोड़ थी। मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जीकी दृष्टि बड़ी विशाल थी। रूकि या अन्धश्रद्धाके कदर विरोधी थे।दे मतमतान्तर और कदाग्रहाविसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने आरमधर्मका ही उपदेश दिया । इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते है। श्रीमद्जी लिखते हैं-- "मूलतत्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना।" ( पुष्पमाला-१४)

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