Book Title: Karmagrantha Part 4 Shadshitik
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 10
________________ (९) मण्डल को खर्च भी अधिक उठाना पड़ा और मुझको श्रम भी अधिक लगा, फिर भी वाचकों को तो फायदा ही हैं; क्योंकि यदि यह पुस्तक जल्दी प्रकाशित हो जाती तो इसका रूप वह नहीं होता, जो आज है। दूसरी बात यह है कि मैंने जिन ग्रन्थों का अवलोकन और मनन करके इस पुस्तक के लिखने में उपयोग किया है, उन ग्रन्थों की तालिका साथ दे दी गयी है, इससे मैं बहुश्रुत होने का दावा नहीं करता, पर पाठकों का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ कि उन्हें इस पुस्तक में किन और कितने ग्रन्थों का कम-से-कम परिचय मिलेगा। मूल ग्रन्थ में साधारण अभ्यासियों के लिये अर्थ और भावार्थ लिखा गया है। कुछ विशेष जिज्ञासुओं के लिये साथ-ही-साथ उपयुक्त स्थानों में टिप्पणी भी दी गई है और विशेषदर्शी विचारकों के लिये खास-खास विषयों पर विस्तृत टिप्पणियाँ लिखकर उनको ग्रन्थगत तीनों अधिकार के बाद क्रमश: परिशिष्टरूप में दे दिया है। इसके बाद जिन पारिभाषिक शब्दों का मैंने अनुवाद में उपयोग किया है, उनका तथा मूल ग्रन्थ के शब्दों के दो कोष दिये हैं। अनुवाद के आरम्भ में एक विस्तृत प्रस्तावना दी है, जिसमें गुणस्थान के ऊपर एक विस्तृत निबन्ध है और साथ ही वैदिक तथा बौद्ध दर्शन में पाये जानेवाले गुणस्थान-सदृश विचारों का दिग्दर्शन कराया है। मेरा पाठकों से इतना ही निवेदन है कि सबसे पहले अन्तिम चार परिशिष्टों को पढ़ें, जिससे उन्हें कौन-कौन-सा विषय, किस-किस जगह देखने योग्य है, इसका साधारण ज्ञान आ जायगा और पीछे प्रस्तावना को, खासकर उसके गुणस्थान-सम्बन्धी विचार वाले भाग को एकाग्रतापूर्वक पढ़ें, जिससे आध्यात्मिक प्रगति के क्रम का बहुत-कुछ बोध हो सकेगा। तीसरी बात कृतज्ञता प्रकाश करने की है। श्रीयुत् रमणीकलाल मगनलाल मोदी बी.ए. से मुझको बड़ी सहायता मिली है। मेरे सहृदय सखा पं. भगवानदास हरखचन्द और भाई हीराचन्द देवचन्द ने लिखित कापी देखकर उसमें अनेक जगह सुधार किया है। उदारचेता मित्र पं. भामण्डलदेव ने संशोधन का बोझा उठाकर उस सम्बन्ध की मेरी चिन्ता बहुत अंशों में कम कर दी। यदि उक्त महाशयों का सहारा मुझे न मिलता तो यह पुस्तक वर्तमान स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिये कम से कम मैं तो असमर्थ ही था। इस कारण मैं उक्त सब मित्रों का हृदय से कृतज्ञ हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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