Book Title: Karmagrantha Karmaprakruti Panchasangraha Author(s): Hemchandracharya Granthamala Ahmedabad Publisher: Hemchandracharya Granthamala Ahmedabad View full book textPage 8
________________ मजं व मोहणीयं दुविहं दंसणचरणमोहा ॥ १३॥ दसणमोहं तिविहं सम्म मोसं तहेव मिच्छतं । सुद्धं अद्धविसुद्धं अविसुद्धं तं हवइ कमसो ॥१४॥ जिअअजिअपुण्णपावासवसंवरबंधमुक्खनिजरणा । जेणं सदहइ तयं संमं खइगाइबहुभेअं ॥ १५॥ मीसा न रागदोसो जिणधम्मे अंतमुहु जहा अन्ने । नालिअरदीवमणुणो मिच्छं जिणधम्मविवरीअं ॥१६॥ सोलस कसोय नव नोकसाय दुविहं चरित्तमोहणियं । अण अप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा ॥ १७॥ जाजीववरिसचउमासपक्खग्गा निरयतिरियनरअमरा। सम्माणुसव्वविरईअहखायचरित्तघायकरा ॥ १८ ॥ जलरेणुपुढविपवयराईसरिसो चउनिहो कोहो। तिणिसलयाकऽहिअसेलत्थंभोवमो माणो ॥ १९ ॥ मायावलेहिगोमुत्तिमिढसिंगघणवंसिमुलसमा। लोहो हलिइखंजणकदमकिमिरागसामाणो ॥ २० ।। जस्सुदयो होइ जिए हासरईअरइसोगभयकुच्छा। सनिमित्तमन्नहा वा तं इह हासाइमोहणियं ॥ २१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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