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डिसेम्बर २०१०
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का वर्णन है । छठे अध्याय में २९ अर्थालङ्कारों का वर्णन है। सप्तम अध्याय में नायक-नायिका के भेद-प्रभेदों पर विचार किया गया है। अष्टम अध्याय में काव्य को प्रेक्ष्य तथा श्रव्य दो भागों में विभाजित किया गया है । इसमें बाणभट्ट की तरह हेमचन्द्र भी कथा और आख्यायिका का भेद स्वीकार कर रहे हैं । नवमें अध्याय में चम्पू काव्य की परिभाषा है ।
काव्यानुशासन प्रायः सङ्ग्रहग्रन्थ है । इसमें आचार्य ने राजशेखर, मम्मट, आनन्दवर्द्धन और अभिनवगुप्त आदि से पर्याप्त आदि से पर्याप्त सामग्री ग्रहण की है । काव्यप्रकाश का विशेष उपयोग किया गया है, फिर भी काव्यानुशासन में हेमचन्द्र की मौलिकता अक्षुण्ण है । यद्यपि काव्यप्रकाश के साथ काव्यानुशासन का अधिक साम्य है । किन्तु, कहीं-कहीं नहीं अपितु पर्याप्त स्थानों पर हेमचन्द्र ने मम्मट का विरोध भी किया है। जैसे उपमा की परिभाषा । काव्यानुशासन में अपने समर्थन के लिए हेमचन्द्र विविध ग्रन्थ एवं ग्रन्थकर्ताओं के नाम उद्धृत करने में अत्यन्त चतुर हैं । कतिपय विद्वानों के मतानुसार काव्यानुशासन में मौलिकता का अभाव खटकता है । महामहोपाध्याय पी.वी.काणे के मतानुसार आचार्य हेमचन्द्र प्रधानतः वैय्याकरणी थे तथा अलङ्कारशास्त्री गौणरूप में थे । उनके मतानुसार काव्यानुशासन सङ्ग्रहात्मक हो गया है । त्रिलोकीनाथ झा (बिहार रिसर्च सोसायटी, वोल्यूम-४०-३ भाग एक-दो पृ० २२-२३) का मत भी इसी प्रकार है । श्री ए.बी.कीथ भी काव्यानुशासन में मौलिकता नहीं देखते । श्री एस.एन.दास. गुप्त एवं श्री एस.के.डे. इस विषय में कीथ के ही मत को स्वीकार करते हैं । किन्तु, श्री विष्णुपद भट्टाचार्य (आचार्य हेमचन्द्र पर व्यक्तिविवेक के कर्ता का ऋण' निबन्ध इण्डियन कल्चर ग्रन्थ १३ पृष्ठ २१८-२२४) ने श्री काणे के मत का खण्डन किया है और हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में मौलिकता प्रस्थापित की है । वे रस-सिद्धान्त के कट्टर अनुयायी थे । काव्यानुशासन के मतानुसार काव्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और ग्राम्य अपभ्रंश में भी लिखा जा सकता है । काव्यानुशासन की व्याख्याओं 'अलङ्कार चूड़ामणि' तथा 'विवेक' में जो उदाहरण एवं जानकारी दी है वह संस्कृत साहित्य में एवं काव्यशास्त्र के इतिहास के लिए अत्यन्त उपयुक्त है ।