Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 23
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 468
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२३ ४५५ १००२६५. (+#) त्रिभुवनदीपक प्रबंध, संपूर्ण, वि. १६वी, मध्यम, पृ. १६, प्र. वि. संशोधित. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२८x९.५, १३४५९-६२). त्रिभुवनदीपक प्रबंध, आ. जयशेखरसूरि, मा.गु., पद्य, वि. १५वी आदि पहिलु परमेसर नमी, अंतिः इम बोलइ जयशेखरसूरि, गाथा- ४४८. १००२६६. (#) लघुसंग्रहणी व बृहत्संग्रहणी, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ६-१ (५) = ५, कुल पे. २, प्र. वि. मूल पाठ का अंशखंड है. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे. (२६.५४१०, ४X३३-३९). , १. पे. नाम. लघुसंग्रहणी, पृ. १अ ४आ, संपूर्ण. आ. हरिभद्रसूरि प्रा. पद्म, आदि नमिय जिणं सव्वन्नु अति रईवा हरिभदसूरिहिं गाथा २९. " २. पे नाम बृहत्संग्रहणी, पृ. ४आ-५आ, अपूर्ण, पू.वि. प्रथम पत्र नहीं है. आ. चंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १२वी, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., गाथा-४ अपूर्ण से है व ९ अपूर्ण तक लिखा है.) १००२७०. (*) ज्योतिषसार सह यंत्रकोद्धार टिप्पण, अपूर्ण, वि. १७६५, फाल्गुन कृष्ण, १३, गुरुवार, मध्यम, पृ. १२-३ (४ से ६ ) =९, ले. स्थल. राजनगर, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ., जैदे., ( २६४१०.५, १६४५१-५६). ज्योतिषसार, आ. नरचंद्रसूरि, सं., पद्य, आदि श्रीअर्हतं जिनं; अंतिः शनि प्रोक्तो न संशयः, श्लोक-२५८, 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (पू.वि. श्लोक-५२ अपूर्ण से ११८ अपूर्ण तक नहीं है.) ज्योतिषसार-यंत्रकोद्धार टिप्पण, आ. सागरचंद्रसूरि, सं., गद्य, आदि: सरस्वतीं नमस्कृत्य; अंति: (-). १००२७२. (+) मयणरेहा चौपाई, अपूर्ण, वि. २०वी श्रेष्ठ, पृ. ९-१ (१) ८, प्र. वि. हुंडी : मेवण रेपा०, मयण रेपा०, संशोधित टिप्पण , युक्त विशेष पाठ., दे., (२४.५X१०, १३X३६). मदनरेखासती रास, मा.गु., पद्य, आदि (-); अंति मिच्छा दुक्कडम महारो, गाथा- १८८, (पू. वि. गाथा १२ से है.) १००२७३. (+४) सम्मेतशिखर तीर्थमाला, संपूर्ण, वि. १७१७, मध्यम, पृ. ६, ले. स्थल. कृष्णगडनगर, प्रले. पंन्या हेतुसागर (गुरु पंन्या. विजयसागर तपागच्छ); गुपि पंन्या. विजयसागर (गुरु वा. कुशलसागर, तपागच्छ); अन्य. ग. महिमासागर, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र. वि. श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ प्रसादात्., संशोधित अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे. (२५.५४१०.५, १३४३३-४६). बहु सम्मेतशिखर तीर्थमाला, मु. जयसागर, मा.गु., पद्य, वि. १६११, आदि: प्रणमीय प्रथम परमेसर; अंति: थुइ भणी सुख धरी, डाल-६, गाथा- १३२. १००२७४. (*) जंबूस्वामीपंचभव चतुपदिका, संपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ९, प्र. वि. हुंडी जंबुकु, संशोधित. जैवे. (२५x१०.५, १३४३८). , जंबूस्वामी रास, श्राव. देपाल भोजक, मा.गु., पद्य, वि. १५२२, आदि: गोयम गणहर पय नमी; अंति: काज सरिस्य तेहना, गाथा - १८५. "" १००२७५ (+) अक्षरबावनी, अपूर्ण, वि. १९वी मध्यम, पृ. ६. पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं. प्र. वि. संशोधित, जैवे. (२५.५x१०, १२X३८-४५). अक्षरबावनी, मु. उदैराज, मा.गु., पद्य, वि. १६७६, आदि अकल अवतार अपरंपर; अंति (-), (पू.वि. गाथा-५८ अपूर्ण तक है.) १००२७६. (४) पार्श्वजिन छंद अंतरिक्षजी, पूर्ण, वि. २०वी मध्यम, पृ. १३, प्र. वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, वे., (२५x१०.५, ६x२०). For Private and Personal Use Only पार्श्वजिन छंद-अंतरिक्षजी, वा. भावविजय पं., मा.गु., पद्य, आदि: सारद माय प्रणमी करी आपो; अंति: (-), (पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं. गाथा ५० अपूर्ण तक है.) ', १००२७७ (+४) श्लोकसंग्रह सह बालावबोध, संपूर्ण वि. १९वी मध्यम, पृ. ६ प्र. वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे., ( २४.५X१०, ११x४२).

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