Book Title: Jivan Sarvasva Author(s): Ratnasundarsuri Publisher: Ratnasundarsuriji View full book textPage 2
________________ (BLOGOUP गुरुदेव कहते हैं... परमात्मा के अस्तित्व के प्रति श्रद्धा रखने वाले मन को यदि परमात्मा की अचिन्त्यशक्तिसंपन्नता पर श्रद्धा नहीं है तो केवल अस्तित्व के प्रति मन की श्रद्धा आत्मा के लिए लाभदायी अथवा हितकारी सिद्ध हो यह संभावना नहीं के बराबर है। संपत्ति के अस्तित्व के साथ संपत्ति की शक्ति पर भी यदि हमें प्रखा होती ही है तो परमात्मा के अस्तित्व के साथ परमात्मा की अचिन्त्यशक्तिसंपन्नता पर हमें श्रद्धा क्यों नहीं? ACA रुचि वर्धमानतप की ओली में और सफलता कर्मों की होली में स्वाध्याय में न देखने को मिले व्यग्रता और वाणी मेंन दिखाई दे उग्रता । दोषों की उपेक्षा नहीं और दोषित की अवहेलना नहीं। बहिर्मुखता में रुचि नहीं और अंतर्मुखता में निरसता नहीं। वात्सल्य में सागरतुल्य और संकल्प में मेरुतुल्य आँखें झुकी हुईं और मस्तक उन्नत! सफलता वंदनीय, पर सरलता अनुकरणीय । वय से वृद्ध, परन्तु काया से युवा। दोषों के विषय में दृष्टि अत्यन्त गहरी और गुणों के विषय में दृष्टि सिद्धशिला पर दिन के उजाले में शासन के कार्यों में व्यस्त और रात्रि के अंधकार में जिनवचनों के लेखन में मग्न। गोचरी में निर्दोषता के आग्रही और संयमचर्या में अप्रमत्तता के आग्रही। विषयों में ललचाने की बात नहीं और कषायों में उलझने की बात नहीं।मन अत्यन्त स्पष्ट और अंत:करण बिल्कुल स्वच्छ। हृदय पवित्र और चित्त प्रसन्न । परलोक प्रतिपल दृष्टि में और परमपद हर क्षण स्मृति में। औरों के सत्कार्यों की प्रशंसा में कृपणता नहीं और स्वयं के प्रमाद के साथ कभी कोई समझौता नहीं। गुरुदेव! इन तमाम गुणों के धारक आप और फिर भी आपको इनसे कोई संतोष नहीं? आप हर पल अधिक से अधिक गुणों के प्रादुर्भाव हेतु तरसते रहे ! तड़पते रहे ! आप कितने बड़े लोभी? R YSURAHAPage Navigation
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