Book Title: Jiva Ajiva Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 4
________________ प्रस्तुति पढमं नाणं तओ दया-जैन दर्शन का यह समन्वयात्मक सिद्धांत है। ज्ञान के बिना आचरण शक्य नहीं और आचरण के बिना ज्ञान की सार्थकता नहीं है। इसलिए ज्ञान और आचरण-दोनों का समन्वय आवश्यक है। आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञान का तात्पर्य है मोक्ष और उसके साधन-संयम, अहिंसा आदि का ज्ञान। उसके लिए अनिवार्य है जीव और अजीव का ज्ञान । भगवान् महावीर ने कहा जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे विन याणइ । जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहिइ संजमं।। जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव और अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जान सकता है? इसलिए अहिंसक मनुष्य के लिए, अहिंसा की साधना में जीव व अजीव का ज्ञान होना अनिवार्य है। इनका विवेचन जैन दर्शन में विशद रूप से उपलब्ध है। भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से इनका प्रतिपादन किया गया है। - पचीस बोल नामक यह छोटा सा थोकड़ा (स्तोक कृत) है। इसमें पचीस-बोल पचीस वाक्यों का समुदाय है। संग्रहकर्ता ने जीव-अजीव का विश्लेषण सरल एवं वैज्ञानिक ढंग से किया है। पचीस बोलों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है १. जीव की उत्पत्ति के चार प्रमुख स्थानों का निर्देश । २. इन्द्रियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण। ३. स्थावर और त्रस जीवों का स्वरूप-विवरण ४. इन्द्रियां और उनके उप-विभाग। ५. छह पौद्गलिक शक्तियों (पर्याप्तियों) का स्वरूप और कार्य। ६. दस जीवन-शक्तियों (प्राणों) का स्वरूप और कार्य। पर्याप्ति और प्राण का सम्बन्ध । आयुष्य प्राण का विशद विवेचन। ७. पांच प्रकार के शरीर और उनका स्वरूप। ८. मनोयोग, वचनयोग और काययोग का विशद विवरण। ६. पांच प्रकार के ज्ञान, तीन प्रकार के अज्ञान और चार प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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