Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006 Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal View full book textPage 8
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, सम्पादकीय जीव का स्वभाव से विभाव में जाना अतिक्रमण है तथा पुनः स्वभाव में स्थित होना प्रतिक्रमण है। जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं अशुभयोग के कारण स्वभाव से विभाव में गमन करता रहता है, उसे पुनः सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, कषायविजय एवं शुभयोग में लाना प्रतिक्रमण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीव का औदयिक भाव से पुनः क्षायोपशमिक भाव में आना प्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण का पारमार्थिक स्वरूप है। इसके अनुसार जब तक आत्मा पूर्ण शुद्ध नहीं होती तब तक प्रतिक्रमण की आवश्यकता बनी रहती है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के तृतीय प्रकाश की स्वोपज्ञवृत्ति में प्रतिक्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात् प्रतीपं क्रमणम् (प्रतिक्रमणम्) अर्थात् शुभयोग से अशुभयोग में गए हुए जीव के पुनः शुभ योग में आना प्रतिक्रमण है। बिना शुभभावों के शुभ योग में आना अशक्य है, अतः भावशुद्धि ही प्रतिक्रमण का प्रयोजन है। औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में आना अथवा विभाव से स्वभाव में आना इसलिए वास्तविक या भाव-प्रतिक्रमण है। इस भाव-प्रतिक्रमण के लिए प्रतिक्रमण के पाठों का निर्धारण किया गया है। व्यावहारिक दृष्टि से इन पाठों को भावपूर्वक बोलकर आत्मशुद्धि एवं व्रतशुद्धि की जाती है। प्रतिक्रमण के इस व्यावहारिक स्वरूप के अनुसार गृहीत व्रतों में अतिचार लगने पर आलोचन, निन्दना एवं गर्हा से उन अतिचारों या दोषों को दूर कर व्रतों को शुद्ध कर लेना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण की महत्ता निर्विवाद है। व्रतों में अतिचार लगने पर साधु और श्रावक को तो उनकी शुद्धि के लिए यथाकाल प्रतिक्रमण करना ही चाहिये। किन्तु साधारण व्यक्ति (अव्रती) भी अपनी भूलों का प्रतिक्रमण करने लगे तो आत्मशुद्धि का मार्ग उसके लिए भी सरल हो जाता है। व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण इस बात की भी प्रेरणा देता है कि व्यवहार में हमसे कोई भी भूल ऐसी हुई हो जो हमारे प्रमाद की वृद्धि करती हो, क्रोधादि कषायों को उद्दीप्त करती हो, दूसरों के प्रति मलिन व्यवहार को जन्म देती हो, अपने भीतर जिससे अशान्ति और क्षोभ उत्पन्न होता हो, वे सब भूलें प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा त्याज्य हैं। प्रतिक्रमण हमें आत्मानुशासित करता है और अपने ही द्वारा आत्मशुद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। अपनी भूल को भूल समझना ही आज कठिन हो गया है, उसकी शुद्धि तो दूर की बात है। नियमित रूप से द्रव्य प्रतिक्रमण करने वाले साधु और श्रावक भी जब तक अपनी भूलों, दोषों या अतिचारों का अवलोकन (आलोचन) नहीं करेंगे तब तक उनको भी निर्मलता, शान्ति और आनन्द का स्वारस्य प्राप्त नहीं हो सकेगा। द्रव्य प्रतिक्रमण का समय निर्धारित है, किन्तु भाव प्रतिक्रमण कभी भी किया जा सकता है। द्रव्य प्रतिक्रमण भाव प्रतिक्रमण का स्मरण दिलाने और उसे पुष्ट करने के लिए होता है। पाठों का शुद्ध उच्चारण द्रव्य प्रतिक्रमण है, किन्तु उसके साथ जब भाव भी जुड़ जाते हैं तो वह द्रव्य प्रतिक्रमण भाव प्रतिक्रमण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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